संस्कृत एवं संस्कृति ही भारत की प्रतिष्ठा के मुख्य हेतु हैं- ‘भारतस्य प्रतिष्ठे द्वे संस्कृतं संस्कृतिस्तथा’। संस्कृत प्राचीन विद्याओं का अजस्र स्रोत है। संस्कृत ही वेद, व्याकरण, दर्शन, आयुर्वेद, ज्योतिष, वास्तु आदि विद्याओं का केन्द्र है। संस्कृत में अनेक विषय ऐसे हैं जिनके सम्बन्ध में शोधच्छात्र, ज्ञानपिपासु अथवा अन्य जिज्ञासु अन्वेषण करते रहते हैं। मैं विभिन्न विषयों पर अन्वेषण करके समीक्षापूर्वक शोधलेख प्रस्तुत कर रहा हूँ, जिसके अध्ययन से आपके ज्ञान में निश्चित वृद्धि होगी। धन्यवाद…

रामानुज के मत में तत्त्वत्रय-विचार :-: Elements in Ramanuja's Doctrine


भारतीय दर्शन में रामानुजाचार्य का दर्शन विशिष्टाद्वैत नाम से प्रसिद्ध है। रामानुजाचार्य भी अद्वैत के पोषक हैं लेकिन उनका अद्वैत शंकर से कुछ विशिष्ट है। रामानुजार्य के मत में मुख्यतः तीन तत्त्व हैं- ईश्वर, चित् एवं अचित्। यहाँ ईश्वर का अर्थ सगुण ब्रह्म से लेना चाहिए और यही परम तत्त्व है। चित् का अर्थ जीव है तथा अचित् कहने का आशय प्रकृति (जगत्) है। ये तीनों तत्त्व अपनी स्वतन्त्र सत्ता रखते हैं। जीव एवं जगत् भी नित्य एवं स्वतन्त्र पदार्थ हैं फिर भी ये दोनों तत्त्व ईश्वर के अधीन हैं। रामानुजाचार्य की दृष्टि में निर्गुण एवं निर्विशेष का ज्ञान सम्भव नहीं अतः निर्गुण ब्रह्म को स्वीकार करने का कोई प्रश्न ही नहीं। सगुण एवं सविशेष होने के कारण ईश्वर ही अनुभवगम्य है एवं यही परमतत्त्व है। यह ईश्वर अपनी इच्छा से सम्पूर्ण लोक का निर्माण करता है तथा वही इसका संहार भी करता है। ईश्वर एक है किन्तु भक्तों का अनुग्रह करने हेतु पाँच रूपों में प्रकट होता है- अन्तर्यामी, पर, व्यूह, विभव एवं अर्चावतार।

रामानुज के अनुसार जीव एवं जगत् ईश्वर के शरीर हैं तथा ईश्वर जीव एवं जगत् की आत्मा है। इसीलिए ईश्वर को चिदचिद्विशिष्ट कहा गया है। रामानुज के मत जीव की सत्ता अविकार्य, अचिन्त्य एवं अव्यक्त है। जीव स्वभाव से ज्ञाता है- अतो ज्ञातृत्वमेव जीवत्मनः स्वरूपम् यह जीव मन, इन्द्रिय आदि से भिन्न एक आनन्दमय सत्ता है। जीवों का बोधमैंसे होता है। यह स्वयंप्रकाश, आनन्दरूप, नित्य, अतीन्द्रिय, अचिन्त्य, निरवयव, निर्विकार एवं ज्ञानाश्रय है। रामानुज के अनुसार जीव अणुरूप है। रामानुज के मत में जीव अनेक हैं। यह ईश्वर के अधीन है अतः इसके विचार-चिन्तनादि ईश्वर द्वारा नियमित होता है। जीव एवं ईश्वर में सेव्य-सेवक भाव है जीव द्वारा जो भी कर्म किया जाता है वह सबकुछ ईश्वर-प्रेरित होता है। इनकी निश्चित संख्या नहीं है। अहं प्रत्यय का वाचक होने के कारण सभी जीवों का अहं परस्पर भिन्न है। रामानुज ने जीवात्मा को मुख्य रूप से तीन भागों में विभाजित किया है- बद्धजीव, मुक्तजीव एवं नित्यजीव। बद्धजीव के अन्तर्गत वे जीव आते हैं जो कर्मपाश में बद्ध होकर इस संसार में जन्म-मृत्यु द्वारा आवागमन करते हैं। मुक्तजीव सांसारिक मोह-माया से मुक्त होकर केवल ईश्वर की भक्ति-आराधना में संलग्न रहते हैं तथा उनके किसी कर्म से किसी को दुःख न हो इसका भी ध्यान रखते हैं। तथा नित्यजीव वे हैं जो जन्म-मृत्यु के आवागमन में बद्ध न हुए हों। ये सर्वदा ईश्वर की नित्य इच्छा से स्वेच्छापूर्वक शरीर धारण करते हैं। मोक्ष की स्थिति में जीवों में गुणगत भेद नहीं होता लेकिन संख्यागत भेद होता है।

रामानुजाचार्य ने ज्ञानशून्य एवं परिणामी द्रव्य को अचित् अथवा प्रकृति तत्त्व कहा है। चैतन्य होने के कारण यह जगत् अचित् अथवा जड़ है। जड़ स्वयं-प्रकाशक नहीं होता है इसलिए इसका जीव एवं ईश्वर से स्वतः भेद द्रष्टव्य है। यह जगत् भी उतना ही सत्य है जितना कि ब्रह्म। रामानुज के मत में यह जगत् मिथ्या अथवा भ्रम नहीं है। यह अचित् भी शुद्धसत्त्व, मिश्रसत्त्व एवं सत्त्वशून्य के भेद से तीन प्रकार का होता है। यहाँ शुद्धसत्त्व में रजोगुण एवं तमोगुण नहीं होते। रजोगुण एवं तमोगुण के अभाव के कारण इसमें कोई कर्म नहीं होता यह ईश्वर की इच्छानुसार किसी वस्तु का आकार ग्रहण करता है। यह नित्य है तथा ज्ञान एवं आनन्द का जनक है। मिश्रसत्त्व में सत्त्वगुण, रजोगुण एवं तमोगुण तीनों का भाव होता है। यह बद्ध जीव में ज्ञान एवं आनन्द का आवरण करने वाला है। मिश्र सत्त्व को ही माया अथवा अविद्या कहते हैं- ज्ञानविरोधित्वादविद्या। रामानुज के मत में सत्त्वशून्य काल है। इसमें सत्त्वगुण, रजोगुण एवं तमोगुण तीनों नहीं होते हैं। यह नित्य है। 

इस प्रकार रामानुज का विशिष्टाद्वैत तत्त्वत्रय को स्वीकार करते हुए इन तीनों तत्त्वों की स्वतन्त्र सत्ता स्वीकार करता है तथा इन तीनों का अलग-अलग स्वरूप निर्धारित करता है।


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