इस जड़-चेतनात्मक जगत् में प्रत्येक प्राणी सुख चाहता है, चाहे वह पशु हो, पक्षी हो या कीट-पतंग। चिन्तन की दृष्टि से मनुष्य सभी प्राणियों में सर्वोपरि है साथ ही सुख की कामना की दृष्टि से भी मनुष्य शीर्ष स्थान पर है। वह सुख प्राप्त करने के लिए अनेक नैतिक-अनैतिक कार्य करता है लेकिन उससे प्राप्त सुख क्षणिक होता है जिसके समाप्त होने पर वह हताश हो जाता है और सद् ज्ञान के अभाव में पुनः पूर्वकृत् कार्य करता है। इसी प्रकार के कार्यों को करते हुए वह इस जन्म का नाश कर देता है और पुनः अगले जन्म के लिए तैयार हो जाता है लेकिन उसके दुःख का नाश नहीं होता। यदि जन्म होगा तो फिर वहीं प्रक्रिया चक्रवत् चलती रहेगी।
सुख दो प्रकार का होता है- १- नित्य सुख और २- अनित्य सुख। सुख-प्राप्ति के लिए धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष- ये चार पुरुषार्थ बताये गये हैं- ‘धर्मार्थकाममोक्षाच्च पुरुषार्था उदाहृता’।[1] पुरुष के द्वारा अभीप्सित अर्थ को पुरुषार्थ कहते हैं- ‘एतच्चतुर्विधं विद्यात् पुरुषार्थप्रयोजनम्’।[2] पुरुषार्थ के मूल में ही सुख विद्यमान है। मानव धर्म करता है तो सुख के लिए, अर्थ का उपार्जन करता है तो सुख के लिए, काम को प्राप्त करता है तो सुख के लिए और मोक्ष की प्राप्ति भी सुख के लिए ही करता है। अर्थ और काम से प्राप्त सुख अनित्य एवं क्षणिक होता है तथा धर्म एवं मोक्ष से प्राप्त सुख नित्य होता है। पुनरपि धर्म, अर्थ एवं काम तीनों मोक्ष की प्राप्ति के साधन बनते हैं। दुःख की ऐकान्तिक और आत्यन्तिक निवृत्ति ही मोक्ष है और यही परमपुरुषार्थ है। इसी की कामना सभी करते हैं क्योंकि प्रत्येक जीव नित्य सुख प्राप्त करना चाहता है।
ब्रह्माजी ने इस सृष्टि की रचना के साथ-साथ लोककल्याण के लिए वेद, धर्मशास्त्रदि भी प्रकट किये। उन्होंने प्रत्येक जीव के स्वभाव के अनुसार अनेक कल्याणकारी वचनों को धर्मशास्त्रादि ग्रन्थों में प्रकट किया, उन्हीं में एक योगशास्त्र भी है। योगशास्त्र का प्रथम उपदेष्टा होने के कारण हिरण्यगर्भ ही योग के प्रथम वक्ता कहलाये- ‘हिरण्यगर्भो योगस्य वक्ता नान्यः पुरातनः’।[3] हिरण्यगर्भ द्वारा उपदिष्ट यह योगशास्त्र वेदों, स्मृतियों, रामायण, महाभारत, पुराणादि शास्त्रों में प्राप्त होता है। इतने विस्तृत क्षेत्र में विस्तार को प्राप्त होने के कारण योगशास्त्र के मौलिकस्वरूप को खोज पाना दुरूह हो गया। ईश्वरेच्छा से सर्वज्ञ महर्षि पतञ्जलि ने योग के मौलिक स्वरूप को सूत्रों में समाहित किया जो ‘पातञ्जलयोगसूत्र’ के नाम से प्रख्यात हुआ जिससे पतञ्जलि योगदर्शन को सूत्रबद्ध कर व्यवस्थित रूप देने वाले हुए।
भारत की अनेक प्राचीन विद्याओं के अन्तर्गत दर्शन[4] का नाम अन्यतम स्थान पर प्रतिष्ठित है। दर्शन न केवल अध्यात्म- ‘अध्यात्मविद्या विद्यानां वादः प्रवदतामहम्’[5] की बात करता है अपितु समाज के प्रत्येक क्रियाकलापों की एक लम्बी सूची भी प्रस्तुत करता है, जिसमें योगदर्शन को शीर्षस्थान प्राप्त है। भारतीय दर्शनों का विभाजन मुख्यतः दो प्रकार से किया जाता रहा है- जिन्होंने वेदादि को आधार बनाकर ग्रन्थ-रचना की उन्हें आस्तिक की संज्ञा दी गयी[6] तथा जिन्होंने वेदादि की मान्यताओं को न माना, वे नास्तिक कहलाये।[7] आस्तिक दर्शन के अन्तर्गत- सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा और वेदान्त आते हैं।[8] नास्तिक दर्शन के अन्तर्गत- चार्वाक, जैन और बौद्ध दर्शन आते हैं।[9]
योग शब्द युज् धातु से घञ् और अण् प्रत्यय करके निष्पन्न होता है। पाणिनीय धातुकोश में युज् धातु तीन स्थानों पर प्राप्त होता है- दिवादिगण में युज् समाधौ, रुधादिगण में युज् संयोगे तथा चुरादिगण में युज् संयमने। यहाँ योग शब्द का अर्थ समाधि है[10], इसलिए दिवादिगण के युज् समाधौ धातु से योग शब्द की निष्पत्ति मानी जाती है। सांख्य और योग समान तन्त्र के दर्शन माने जाते हैं। सांख्य सिद्धान्त एवं ज्ञान की दृष्टि से तथा योग प्रयोग एवं कर्म की दृष्टि से प्रयुक्त होता रहा है।[11] कर्म एवं व्यवहार की प्राथमिकता होने के कारण योग सम्पूर्ण विश्व का एक महत्त्वपूर्ण अंग बन गया है।
योग की उपयोगिता होने से सभी शास्त्रों ने इसे अंगीकार किया है। योग का विषय चित्त को वृत्तियों[12] में गमन करने से रोकना है- ‘योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः’।[13] चित्त की वृत्तियाँ सुख, दुःख और मोहात्मक होती हैं- ‘सर्वाश्चैता वृत्तयः सुखदुःखमोहात्मिकाः’।[14] भिन्न-भिन्न शास्त्रों में योग के अनेक प्रकार से लक्षण किये गये हैं। प्रस्तुत योग के सभी लक्षण पतञ्जलि द्वारा निरूपित योग का प्रतिपादन तो नहीं करते हैं किन्तु सभी का उद्देश्य नित्य सुख को प्राप्त करना है। योग के लक्षण इस प्रकार हैं-
1) ‘योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः’।[15]
2) ‘कायवाङ्मनः कर्मयोगः’।[16]
3) ‘पुम्प्रकृत्योर्वियोगेऽपि योग इत्यभिधीयते’।[17]
4) ‘अद्वैतानुभूतियोग’।[18]
5) ‘समत्वं योग उच्यते’।[19]
6) ‘योगः कर्मसु कौशलम्’।[20]
7) ‘दुःखसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम्’।[21]
8) ‘सर्वार्थविषयप्राप्तिरात्मनो योग उच्यते’।[22]
9) ‘युज्यते चित्तमनेनेति योगः’।[23]
10) ‘योगस्तु सर्वत्र समदर्शनः’।
11) ‘योगो वृत्तिनिरोधो’।[24]
12) ‘चित्तस्य निर्मलसत्त्वपरिणामरूपस्य या वृत्तयोङ्गाङ्गिभावपरिणामरूपाः तासां निरोधो बहिर्मुखता परिणतिविच्छेदादन्तर्मुखतया प्रतिलोमपरिणामेन स्वकारणे लयो योग इत्याख्यायते’।[25]
13) ‘योगः समाधानम्’।[26]
14) ‘इन्द्रियमनोऽर्थसन्निकर्षात् सुखदुःखे, तदनारम्भ आत्मस्थे मनसि, शरीरस्य सुखदुःखाभावः प्राणमनोविनिग्रहापेक्षः संयोगो योग इति’।[27]
15) ‘योगादेव अभुदयनिःश्रेयससिद्धिस्त्रिविधतापोपशान्तिश्च’।[28]
16) ‘मोक्षेण योजनाद् योगः’।[29]
17) चतुर्वर्गेऽग्रणीर्मोक्षो योगस्तस्य च कारणम्।
ज्ञान श्रद्धान चारित्ररूपं रत्नत्रयं च सः॥[30]
18) ‘पुरुषस्यात्यन्तिकस्वरूपावस्थितेर्हेतुश्चित्तवृत्तिनिरोधो योगः’।[31]
19) ‘निरुध्यन्ते यस्मिन्प्रमाणादिवृत्तयोऽवस्थाविशेषे चित्तस्य सावस्थाविशेषो योगः’।[32]
20) ‘क्लिष्टचित्तवृत्तिनिरोधो योगः’।
21) ‘संयोगो योग इत्युक्तो जीवात्मपरमात्मनोः’।[33]
ज्ञान का विषय होने से पश्चिमी विद्वान् भी योग के अध्ययन में पीछे नहीं रहे। पश्चिमी विद्वानों द्वारा योगाभिमत लक्षण द्रष्टव्य है-
‘Yoga is in its most universal sence the way of attaining to this awareness.’[34]
‘Stop thinking and get beyond or behind consciousness and you will discover the meaning of Reality in super consciousness (Samadhi), which is as different from consciousness as a fourth dimensional world is from our existing three dimensional globe. Have mapped out a royal road to this Reality and have called it Yoga.’[35]
व्यासभाष्य में कहा गया है कि चित्त रूपी नदी के दो प्रकार के स्रोत हैं एक स्रोत कल्याण के लिए बहता है और दूसरा स्रोत पाप के लिए उन्मुख होता है। जब चित्त रूपी नदी विवेक एवं तत्त्वज्ञान की ओर उन्मुऽख होती है तो वह कैवल्य को प्राप्त कराने वाली होती है। उसे ही कल्याण की ओर बहने वाली कहा है- ‘चित्तनदी नामोभयतो वाहिनी वहति कल्याणाय वहति पापाय च’।[36] योगदर्शन मानव की प्रवृत्तियों के उन अंगों को उपस्थित करता है जिनके व्यवहार से मानव स्वयं को उस परमानन्द की अनुभूति करा पाता है। परमानन्द की स्थिति को कैवल्य की संज्ञा दी गयी हैं। योगदर्शन में तीन साधकों का वर्णन प्राप्त होता है[37]-
- अधम साधक
- मध्यम साधक
- उत्तम साधक
इन साधकों के अन्तर्गत जगत् का प्रत्येक प्राणी आ जाता है। योगदर्शन में योगसिद्धि के प्रत्येक साधक के लिए अलग-अलग साधनों का वर्णन किया गया है, जिसके सम्यक् प्रयोग से साधक परमानन्दावस्था का लाभ प्राप्त करता है। यदि साधक योग के सभी साधनों का सम्यक् रूप से साधना करे तो वह बहुत जल्द ही कैवल्य को प्राप्त कर सकता है। ऐसे साधक जिन्होंने पूर्वजन्म में योग की साधना की है, चित्त को पर्याय रूप में समाहित कर लिया है जिससे उनका चित्त निर्मल और पवित्र हो गया है लेकिन समाधिसिद्धि प्राप्त करने से पूर्व ही उनकी मृत्यु हो गयी, तो अगले जन्म में उन्हें यमनियमादि साधनों के अभ्यास करने की आवश्यकता नहीं है, वे स्वभाव से ही इन सबका क्रियात्मक रूप में पालन करते हैं। अभिप्राय यह है कि उस साधक का चित्त पूर्व जन्म में ही समाहित हो चुका है अतः ऐसे समाहित चित्त साधकों को समाधि के केवल अभ्यास और वैराग्य का पालन करना चाहिए- ‘अभ्यासवैराग्यां तन्निरोधः’।[38]
चित्तवृत्ति विषयों की ओर उन्मुख होते हुए अविद्या एवं अज्ञान की ओर ले जाती है। चित्तवृत्ति को उनके विषयों से प्रतिमुख कराने के लिए अभ्यास और वैराग्य की आवश्यकता पड़ती है। जिस स्थिति में चित्त हो, उसे उसी स्थिति में निरन्तर बनाये रखते हुए चित्त को प्रशान्त रूप में स्थित रखना ही अभ्यास है- ‘तत्र स्थितौ यत्नोऽभ्यासः’।[39] साधक तपस्यापूर्वक, ब्रह्मचर्यपूर्वक और श्रद्धापूर्वक अभ्यास को सिद्ध कर सकता है अभ्यास दीर्घकाल तक निरन्तरतापूर्वक और निष्ठापूर्वक करना चाहिए- ‘स तु दीर्घकालनैरन्तर्यसत्कारासेवितो दृढ़भूमिः’।[40] दृष्ट, रूपरसादि विषयों के प्रति वितृष्णा उत्पन्न होना तथा अदृष्ट, स्वर्गादि तथा अन्य सिद्धियों के प्रति वितृष्णा उत्पन्न होकर उन पर पूर्ण रूप से वशीकार अर्थात् अधिकार प्राप्त कर लेना वैराग्य है- ‘दृष्टानुश्रविकविषयवितृष्णस्य वशीकारसंज्ञा वैराग्यम्’।[41] इस अवस्था में अभ्यास करते हुए साधक व्यक्त और अव्यक्त का विवेक प्राप्त करके चित्त में स्थित तृष्णा से भी विरक्त हो जाने पर परमवैराग्य की स्थिति में पहुँच जाता है- ‘दृष्टानुश्रविकविषयदोषदर्शी विरक्तः पुरुषदर्शनाभ्यासात्तच्छुद्धिप्रविवेकाप्यायितबुद्धिर्गुणेभ्यो व्यक्ताव्यक्तधर्मकेभ्यो विरक्त इति’।[42] इस स्थिति में योगी को आत्मज्ञान हो जाता है, अविद्यादि क्लेश का नाश हो जाता है- ‘यस्योदये प्रत्युदितख्यातिरेवम्मन्यते, प्राप्त प्रापणीयं, क्षीणाः क्षेतव्याक्लेशाः छिन्नः श्लिष्टपर्वा’।[43] विज्ञानभिक्षु के अनुसार पुरुष केवल अपने ही स्वरूप में स्थित होकर दिव्य-प्रसाद अर्थात् ज्ञान ज्योति को प्राप्त कर लेता है, यहीं ज्ञान की पराकाष्ठा है, इस स्थिति के बाद व्यक्ति संसार के आवागमन से मुक्ति हो जाता है।[44] साधक के निरन्तर अभ्यास करते रहने से ध्यान जब ध्येय मात्र का प्रकाशक एवं अपने ध्यानाकार से सदृश हो जाता है तब वह समाधि की अवस्था होती है- ‘तदेवार्थमात्र निर्भासं स्वरूपशून्यमिव समाधिः’।[45]
मध्यम साधक के अन्तर्गत वे साधक आयेंगे जिन्होंने पूर्व जन्म में योग का प्रतिष्ठान तो किया लेकिन अपने चित्त को समाहित नहीं कर पाये। ऐसे साधकों को क्रियायोग[46] का अभ्यास करना चाहिए। ऐसे साधकों का चित्त क्षिप्त[47], मूढ़[48] और विक्षिप्त[49] अवस्था वाला होता है, इनका चित्त हमेशा चंचल रहता है। ऐसे साधकों को तप, स्वाध्याय और ईश्वरप्रणिधान का आचरण करना चाहिए। जो तपस्वी नहीं है उसका योग सिद्ध नहीं हो सकता है।[50] प्रणवादि के पवित्र जप और मोक्षविधायक शास्त्रें का अध्ययन ही स्वाध्याय है- ‘स्वाध्यायः प्रणवादिपवित्रणां जपः मोक्षशास्त्रध्ययनम्’।[51] कर्म करते हुए उनको गुरु या ईश्वर के प्रति समर्पित कर देना और निष्काम भाव से कर्म करना ही ईश्वरप्रणिधान है- ‘ईश्वरप्रणिधानं सर्वक्रियाणां परमगुरावर्पणं तत्फलं सन्यासो वा’।[52]
अधम कोटि के साधकों के लिए अष्टांग का वर्णन किया गया है, वे आठ अंग हैं- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि- ‘यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोऽष्टावङ्गानि’।[53]
योगशास्त्र दर्शन के साथ-साथ व्यवहारशास्त्र भी माना जाता है। आज समाज अनेक प्रकार की समस्याओं से ग्रस्त हो गया है, प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी समस्या से जूझ रहा है, चाहे वह वैयक्तिक हो या फिर सार्वजनिक। समाज में ऐसे अनेक अराजक तत्त्व देखने को मिलते रहे हैं जिनसे समाज को प्रतिक्षण खतरा रहता है, चाहे वह खतरा चोरी जैसी छोटी घटना हो या फिर बलात्कार एवं आतंकवाद जैसी बड़ी घटना। इन समस्याओं का मूल्यांकन करने से पता चलता है कि इन समस्याओं का मूल कारण- व्यक्तियों के रहन सहन को ही कहा जा सकता है। यदि हम उनके व्यवहारों पर ध्यान दें तो हमें पता चलता है कि उनका रहन सहन भी हमारे जैसा सामान्य ही है लेकिन उनकी मानसिक प्रवृत्तियाँ ही उनकों ऐसे कार्यों के लिए प्रेरित करती है। योग इसके निदान में सहायक सिद्ध हो सकता है।
योगसिद्धि के तीन उपायों को अपनी व्यावहारिक क्रियाविधि पर लागू करके उपर्युक्त समस्याओं से निजात पाया जा सकता है। उत्तम साधक के अभ्यास और वैराग्य जैसे साधन को अपने जीवन में अपनाकर मद्यपान, धूम्रपानादि जैसी बुरी आदतों से बच सकते हैं और अपने जीवन को सुखमय बना सकते हैं। मध्यम साधक के तप, स्वाध्याय और ईश्वरप्रणिधान जैसे उपायों को अपनाकर किसी कार्य को दत्तचित्त होकर पूरा कर सकते हैं, ज्ञानवर्धक ग्रन्थों का अध्ययन कर सकते हैं और निष्काम भाव से कर्म करते हुए संसार के आवागमन से मुत्तफ़ हो सकते हैं। अधम साधक के अष्टांगयोग जैसे उपाय को जीवन में धारण करके हिंसा, झूठ, चोरी आदि बुरी आदतों से बच सकते हैं।
योग में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह का सम्यक् वर्णन प्राप्त होता है लेकिन हम उसकी उपयोगिता को समझ नहीं पा रहे हैं जिससे समाज में अनेक प्रकार की हिंसा, झूठ बोलना, चोरी, बलात्कार, आतंकवाद इत्यादि अनेक समस्याएँ जन्म ले रही हैं। प्रत्येक मानव में वैर की भावना होने से हिंसा होती है, हिन्दू-मुस्लिम जैसे दंगे होते हैं एवं अन्य हिंसाएँ होती हैं क्योंकि हम अहिंसा से परिचित नहीं हैं। हम झूठ बोलते हैं चुगली करते हैं जिससे वाचिक, मानसिक या शारीरिक हिंसा होती है। अपरिग्रह का पालन न करने से घुसखोरी, भ्रष्टाचार जैसी घटनाएँ होती हैं। यदि व्यक्ति प्राणायाम करता है एवं इन्द्रिय निग्रह करता है तो उसके मन में गलत भावनायें प्रवेश नहीं कर पाती हैं। आज समाज में बलात्कार का मूल कारण, हमारी मानसिकता ही है क्योंकि हम अपनी इन्द्रियों का निग्रह नहीं करते हैं।
समाज एक ऐसा स्थान है जहाँ भिन्न-भिन्न प्रकृति के लोग निवास करते हैं। जिनमें से कुछ समाज के उपकारक, कुछ अपकारक और कुछ उदासीन होते हैं। आज समाज में अच्छे लोगों की अपेक्षा दुष्ट प्रकृति के लोगों की संख्या अधिक है। यत्र-तत्र हिंसक घटनाएँ घटित होते हुए देखी जा रही हैं। भारतीय संस्कृति को विरासत में अनेक ऐसे शास्त्र प्राप्त हैं जिनमें इन हिंसक घटनाओं के निवारण के लिए अनेक उपाय बताये गये हैं, योगशास्त्र भी इसका एक उदाहरण है। योगशास्त्र में यमनियमादि जैसे अनेक उपाय वर्णित हैं जिनके नियमित उपयोग से हिंसक प्रवृत्ति के लोगों के चित्त को परिवर्तित किया जा सकता है। समाज में उपस्थित समस्याओं के निवारण में पातेञ्जल योग में वर्णित उपाय अत्यन्त उपादेय हैं। योगशास्त्रें में वर्णित उपायों को मानव के दैनन्दिनी व्यवहार पर लागू करके समाज में व्याप्त अराजक तत्त्वों को नष्ट किया जा सकता है। योगशास्त्र भी कहता है कि जिस प्रकार हथेली पर रखी हुई वस्तु प्रत्यक्ष होती है उसमें कोई संशय नहीं होता उसीप्रकार योग के प्रदीप से देखे जाने वाले धर्मादि के जो भेद हैं उनका सही ज्ञान होता है। योग का उद्देश्य यही है कि वह हर एक वस्तु को प्रत्यक्ष दिखलाते हुए प्रकृति और पुरुष के भेद को प्रत्यक्ष दिखलाये और प्रकृति के सभी बन्धनों से पुरुष को मुक्त कर दे।
विश्व में योग की महत्ता बढ़ने से अधिकतर विद्वान् इसकी तरफ अग्रसर हो रहे हैं और अनेक शोध भी हो रहे हैं। कुछ विद्वान् योग का शास्त्र की दृष्टि से अध्ययन कर रहे हैं तो कुछ उपचार की दृष्टि से, लेकिन समसामयिक समस्याओं के निवारण में योग व योगसिद्धि के उपायों की क्या भूमिका है? यह अंश अछूता रह गया है। योग एक सर्वमानित विषय है व्यवहारशास्त्र होने के कारण आज इसकी उपयोगिता और बढ़ गयी है। योगशास्त्र में तीनों साधकों के लिए जिन उपायों का वर्णन किया गया है उनका मानव के समसामयिक जीवन में उपयोगिता सिद्ध है।
इस प्रकार निष्कर्षतः कह सकते हैं कि योग मात्र दर्शनशास्त्रनहीं अपितु समाजशास्त्र है व्यवहारशास्त्र है नीतिशास्त्र है। योगशास्त्र का प्रत्येक सिद्धान्त प्रत्येक उपाय मनुष्य के व्यावहारिक जीवन से सम्बद्ध है। भोजराज ने योग का लक्षण करते हुए योग की उपयोगिता एवं प्रासंगिकता को निरूपित किया है- ‘योगो युक्तिः समाधानम्’ अर्थात् योग वही है जो किसी भी समस्या का समाधान करता है समस्या का समाधान करने हेतु युक्ति प्रस्तुत करता है। योग में निरूपित अष्टांग योग प्राचीन काल से लोगों के व्यवहार का विषय रहा है। सज्जन एवं सत्पुरुष अहिंसा, सत्य, अस्तेयादि गुणों का केन्द्र होते थे। एक सामान्य व्यक्ति भी इन सभी से संवलित जीवन यापन करता था। अपने व्यवहार से किसी को भी आहत न करने वाला स्वयं को सर्वदैव प्रसन्नता महसूस करता था। कदाचित् जन्म से ही उनमें इन सभी सद्गुणों का संस्कार किया जाता है। आज समाज इतना अधिक परिवर्तित हो गया है कि बच्चों में किसी भी प्रकार के संस्कार नहीं किये जा रहे हैं जिससे वे अपनी परम्परा एवं अक्षय निधि को भूलते जा रहे हैं ऐसे में योग ही उन्हें भारतीय सभ्यता की ओर लौटने, भारतीय प्रचीन समाजव्यवस्था पर चिन्तन करने एवं शास्त्रों में वर्णित व्यवहारों को अपनाने में प्रेरित कर रहा है।
[1] अग्निपुराण ।
[2] मनुस्मृति ७.१००।
[3] महाभारत १२.३४९.६५ ।
[4] दर्शनशब्दस्य सामान्यार्थं सम्यग्दर्शनमिति भवति। दर्शनशब्दः दृशि र्प्रेक्षणे धातोः करणार्थे ल्युट् प्रत्यये कृते निष्पद्यते। दर्शनशब्दस्य व्युत्पत्तिः द्विविधयाः भवति, दृश्यतेऽनेन इति दर्शनम् अर्थात् येन दृश्यते तथा दृश्यते इति दर्शनम् यस्य दर्शनं साक्षात्कारं वा भवति।
[5] गीता १०.३२।
[6] वेदप्रमाणकानीह प्रोचुर्ये दर्शनानि षट्।
न्यायवैशेषिकादीनि स्मृतास्ते आस्तिकाभिधाः।। आर्यविद्यासुधाकर, लाहौर, १९२२।
[7] नास्तिको वेदनिन्दकः। मनुस्मृति २.१२
[8] अवैदिकप्रमाणानां सिद्धान्तानां प्रदर्शकाः।
चार्वाकाद्याः षड्विधास्ते ख्याता लोकेषु नास्तिकाः।। आर्यविद्यासुधाकर, लाहौर, १९२२।
[9] वेदप्रमाणकानीह प्रोचुर्ये दर्शनानि षट्।
न्यायवैशेषिकादीनि स्मृतास्ते आस्तिकाभिधाः।। आर्यविद्यासुधाकर, लाहौर, १९२२।
[10] ‘योगः समाधिः’ पातञ्जलयोगसूत्र, व्यासभाष्य १.१।
[11] लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ ।
ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्।। गीता ३.३।
[12] प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतयः। पातञ्जलयोगसूत्र १.६।
[13] पातञ्जलयोगसूत्र १.२।
[14] पातञ्जलयोगसूत्र, व्यासभाष्य ।
[15] पातञ्जलयोगसूत्र १.२।
[16] तत्त्वार्थसूत्र ६.१ ।
[17] जयेन्द्र योग प्रयोग, पृ- १८।
[18] जयेन्द्र योग प्रयोग, पृ- १८।
[19] श्रीमद्भगवद्गीता २.४८।
[20] श्रीमद्भगवद्गीता २.५०।
[21] श्रीमद्भगवद्गीता ६.२३।
[22] लिंगपुराण ।
[23] जयेन्द्र योग प्रयोग, पृ- १८।
[24] योगवासिष्ठ ।
[25] योगसूत्र, भोजविृत्त १.२।
[26] योगसूत्र, भाष्यविवरण १.१।
[27] योगसूत्र, भाष्यविवरण १.१।
[28] योगशास्त्र, पुरोवचन ।
[29] योगबिन्दु ।
[30] योगशास्त्र १.१५।
[31] पातञ्जलयोगसूत्र, योगवार्तिक १.२।
[32] पातञ्जलयोगसूत्र, तत्त्ववैशारदी १.२।
[33] याज्ञवल्क्यस्मृति १.८।
[34] Claude Bragdon.
[35] J.F.C. Fuller.
[36] पातञ्जलयोगसूत्र, व्यासभाष्य ।
[37] तत्त्ववैशारदी
[38] पातञ्जलयोगसूत्र १.१२।
[39] पातञ्जलयोगसूत्र १.१३।
[40] पातञ्जलयोगसूत्र १.१४।
[41] पातञ्जलयोगसूत्र १.१५।
[42] पातञ्जलयोगसूत्र, व्यासभाष्य ।
[43] पातञ्जलयोगसूत्र व्यासभाष्य ।
[44] अतश्च श्लिष्टानि निःसंधीनि पर्वाणि यस्य स श्लिष्टपर्वा भवसंक्रमो देहाद्देहान्तरसंचाराख्यः संसारच्छिन्नः पुनर्न भवितेति। पातञ्जलयोगसूत्र, योगवार्तिक ।
[45] पातञ्जलयोगसूत्र ३.३।
[46] तपः स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोगः। पातञ्जलयोगसूत्र २.१ ।
[47] क्षिप्तं सदैव रजसा तेषु तेषु विषयेषु क्षिप्यमाणमत्यन्तमस्थिरम्। पातञ्जलयोगसूत्र, तत्त्ववैशारदी १.१।
[48] मूढ़ं तु तमःसमुद्रेकान्निद्रावृत्तिमत्। पातञ्जलयोगसूत्र, तत्त्ववैशारदी १.१।
[49] क्षिप्ताद्विशिष्टं विक्षिप्तं, सत्त्वाधिक्येनसमादधदपि चित्तं रजोमात्रयान्तरान्तरा विषयान्तरवृत्तिमद्। पातञ्जलयोगसूत्र, योगवार्तिक १.१।
[50] ना तपस्विनो योगः सिद्धयति, अनादिकर्मक्लेशवासना चित्रप्रत्युयस्थितिविषय- जालाचाशुद्धिनर्नान्तरेण तपः सम्भेदमापद्यत इति उपरदनम्। पातञ्जलयोगसूत्र, व्यासभाष्य ।
[51] पातञ्जलयोगसूत्र, व्यासभाष्य ।
[52] पातञ्जलयोगसूत्र, व्यासभाष्य ।
[53] पातञ्जलयोगसूत्र २.२९।
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