सगरात्मजा दिवं जग्मुः केवलं देहमस्माभिः॥[1]
सृष्टि के प्रारम्भकाल से ही गंगा भारतभूमि का अपने औषधभूत अमृत-जल से सिंचन करती रही है। गंगा जल का दर्शन, स्पर्श, स्नान, पान और कीर्तनमात्र मनुष्य को जन्म-मरण के बन्धन से सदा के लिए मुक्त कर देता है। महाभारत में स्पष्टतः कहा गया है कि गंगा, अपना नामोच्चारण करने वाले के पापों का नाश करती है, दर्शन करने वालों का कल्याण करती है तथा स्नान-पान करने वालों की सात पीढ़ियों तक को पवित्र कर देती है।[2]
संस्कृत का वैदिक एवं लौकिक वाङ्मय गंगा-सम्बन्धी
आख्यानों एवं वर्णनों से ओतप्रोत है। द्रष्टव्य है कि भारत रूपी राष्ट्र के व्यक्तित्त्व
में यदि हिमालय शीश है, समुद्र चरण है तो गंगा हृदय है और हृदय का स्पन्दन ही, जिस
प्रकार से मनुष्यों के जीवित होने का प्रमाण होता है उसी प्रकार गंगा का अस्तित्व भारत-राष्ट्र
की जीवन्तता का एकमात्र प्रमाण है। नदियों की गणना के समय गंगा सर्वोच्च स्थान पर स्थित
रहती है। ऋग्वेद में नदीसूक्त के अन्तर्गत नदियों के वर्णन के समय गंगा का ही सर्वप्रथम
नाम लिया गया है-
इमं मे गङ्गे यमुने सरस्वति शुतुद्रि
स्तोमं सचता परुष्ण्या।
असिक्न्या मरुद्वधे वितस्ततयार्जीकीये
श्रुणुह्या सुषोमया॥[3]
नरसिंह पुराण में नदियों का वर्णन करते समय
छः नदियों को महानदी की संज्ञा से विभूषित किया गया है तथा उन्हें पापों को नष्ट करने
वाली बताया गया है। गंगा महानदियों में भी
अग्रगण्य है-
गङ्गा यमुना गोदावरी तुङ्गभद्रा कावेरी
सरयूरित्येता महानद्यः पापघ्न्यः॥[4]
गंगा
शब्द की निष्पत्ति गम्लृ गतौ धातु से गन् गम्यद्योः तथा स्त्रीवाचक टाप् प्रत्यय करके
हुआ है। जिसका अर्थ है- निरन्तर संचरणशील। जो परब्रह्म परमेश्वर का ज्ञान करा दे अथवा
वहाँ तक पहुँचा दे वही गंगा है-
गमयति प्रापयति ज्ञापयति वा भगवत्पद या शक्तिः।
यद्वा गम्यते प्राप्यते ज्ञाप्यते मोक्षार्थिभियां सा गङ्गा॥
अमरकोशकार
ने गंगा के आठ पर्यायों का वर्णन किया है-
गङ्गा विष्णुपदी जह्नुतनया
सुरनिम्नगा।
भागीरथी त्रिपथगा त्रिस्रोता
भीष्मसूरपि॥[5]
हलायुधकोश
में भी गंगा के नौ पर्याय मिलते हैं-
भागीरथी सुरसरिद्विष्णुपदी
जाह्नवी तथा गङ्गा।
मन्दाकिनी त्रिपथगा सरिद्वरा
त्रिदशदीर्धिका प्रोक्ता॥[6]
आचार्य
हेमचन्द्र ने गंगा के १९ पर्यायों को गिनाया है, जिनमें से कुछ नये अभिधान भी हैं जो
अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हैं-
गंगा त्रिपथगा भागीरथी त्रिदशदीर्धिका।
त्रिस्रोता जाह्नवी मन्दाकिनी
भीष्मकुमारसूः॥
सरिद्वरा विष्णुपदी सिद्धस्वः
स्वर्गिखापगा।
ऋषिकुल्या हैमवती स्वर्वापी
हरशेखरा॥[7]
सामान्यतः नदियों का लोकजीवन से सम्बन्ध सृष्टि
के आदिकाल से रहा है, यही कारण है कि विश्व की प्रमुख संस्कृतियाँ नदियों के किनारे
ही प्रादुर्भूत हुई हैं और पल्लवित होती रही हैं। भारतवर्ष में सप्तपावन नदियों में
प्रमुख गंगा लोकजीवन को आदिकाल से अनुप्राणित कर, लोक संस्कृति को समृद्ध तथा पवित्र
करती आ रही है। मानव के पुरुषार्थ-चतुष्टय भी गंगा से अछूते नहीं रहे हैं। जन्म से
लेकर मृत्युपर्यन्त मनुष्य किसी न किसी रूप में गंगा से अवश्यमेव सम्बद्ध रहता है।
गंगा में विश्वास रखने के कारण ही अनेक पावन-नगर गंगा के तट पर अवस्थित होकर तीर्थ
के रूप में राष्ट्र के आर्थिक पक्ष को पुष्ट करते हैं। इन तीर्थों से राष्ट्र की राजनैतिक,
सामाजिक एवं सांस्कृतिक स्थिति समुन्नत होती रही है।
गंगा के प्रति लोकजीवन की अद्भुत भक्ति, आस्तिकता,
परमपद की प्राप्ति की मनोकामना परिलक्षित होती है। धर्मतीर्थ के रूप में गंगा तटीय-स्थल
अपनी महत्त्वपूर्ण अवस्थिति से लोकजीवन को आदिकाल से आकर्षित करते रहे हैं। गंगा, अपने
में अनेक सरिताओं को समेटते हुए प्रयाग जैसे संगम-स्थल को देकर लोकजीवन में तप एवं
दान आदि धार्मिक कार्यों को प्रवृत्त करती है। आचार्य शंकराचार्य के शब्दों में आस्तिक
लोकजीवन के मानस में कितनी असीम आस्था, श्रद्धा एवं भक्ति भावना, गंगा के प्रति समायी
हुई है कि पतितपावनी गंगा की महिमा स्वतः स्पष्ट हो जाती है-
तव जलममलं येन निपीतं परमपदं
खलु तेन गृहीतम्।
मातर्गङ्गे त्वयि यो भक्तः
किल तं दृष्टुं न यमश्शक्तः॥[8]
गंगा भूलोक में प्रसिद्ध तो है ही देवलोक
में भी सभी देवताओं से सम्बन्ध रखती है कुछ प्रमुख देवताओं के साथ गंगा का सम्बन्ध
द्रष्टव्य है-
गंगा
का विष्णु से सम्बन्ध
गंगा का विष्णु के साथ पत्नी का सम्बन्ध है-
गङ्गा सरस्वती लक्ष्मीश्चौतास्तिस्त्रः
प्रिया हरेः।[9]
एता नारायणस्यैव चतस्रश्च
प्रिया इति।[10]
भगवान्
विष्णु का गङ्गा के साथ गान्धर्वविवाह भी हुआ था जिसका वर्णन भागवत में प्राप्त होता
है।[11]
गंगा
का शिव से सम्बन्ध
स्वर्ग से गिरते समय शिव की जटाओं में पहुँचने
के बाद गंगा शिव की प्रिया हो गई-
यदा चेयं हरशिरः प्राप्ता
गंगा महमौने।
तदा प्रभृति सा गंगा शम्भोः
प्रियतराऽभवत्॥[12]
पार्वती को पत्नीभाव में स्वीकार करने के
समय ही शिव ने गंगा को भी पत्नी के रूप में स्वीकार किया था- ‘तस्मिन्नेवाभवद्गङ्गा
प्रियासम्भोमहामते’[13]।
गंगा
का राधा-कृष्ण से सम्बन्ध
गंगा, राधा और कृष्ण की अंगोद्भवा मानी गयी
है इसलिए वह कृष्ण के द्वारा कन्यावत् आदरणीय है- कृष्णांशा च त्वदंशा च त्वत्कन्यासदृशी
प्रिया।’[14]
परमेश्वर राधा से कहते हैं कि- तुम ही गंगा
की माता हो और वह प्रत्येक समय तुम्हारी कन्या है-
गोलोकस्था च या गंगा सर्वत्रस्था
तथाम्बिके।
तदम्बिका त्वं देवेशी सर्वदा
सा त्वदात्मजा॥[15]
ऋषि
गौतम के परिवार को पवित्र करने वाली गौतमी गंगा को महादेव ने कलियुग के अट्ठाइसवें
वैवस्वत् मनुपर्यन्त अर्थात् कलियुग के बीतने तक केदार हिमगिरि में रहने का निर्देश
दिया है-
त्वया स्थातव्यमत्रैव व्रजेद्यावत्कलियुगः।
वैवस्वतो मनुर्देवि ह्यष्टाविंशत्तमो
भवेत्॥[16]
कर्म करते समय मनुष्य अनेक कृत्याकृत्य कर्म
करता है जिसके अनुसार उसे सुख-दुःख के रूप में फल भी प्राप्त होता है। गंगा की महानता
यहाँ भी बतलाई गई है कि इस धरा पर समस्त देहधारियों को पवित्र करने के लिए गंगा-सदृश
कोई भी तीर्थ नहीं है क्योंकि यह गंगा तो निःसन्देह परब्रह्म का ही रूप है-
गङ्गता न समं तीर्थं पावनं
सर्वदेहिनाम्।
यदसौ वासुदेवस्य तनुरेव
न संशयः॥[17]
गंगा
के गौरव एवं माहात्म्य से उसकी अप्रतिहत गतिमयता, आस्तिकता, उदारता, शुचिता, निश्छलता,
स्वच्छता, स्निग्धता, पावनता आदि अनन्त गुणों के कारण आदर्शोन्मुख लोकजीवन इतना अधिक
अनुप्राणित हुआ है कि न केवल नर-नारियों के नाम जैसे- गंगा, गंगाप्रसाद आदि नाम रखे
गये हैं अपितु शहरों के भी नाम गंगा के नाम रखे गये हैं।
समस्त तीर्थों का पुण्य गंगा की सोलहवीं कला
के बराबर भी नहीं है।[18] गंगा की अचल-भक्ति मनुष्यों के
लिए दुर्लभ है।[19]
भगवान् विष्णु ने भी कई वर्षों में जिस गंगा का महत्त्व-वर्णन नहीं कर पाया, इस सम्बन्ध
में अत्यधिक बोलने से क्या लाभ ?
गङ्गाया महिमा ब्रह्मन्
बहु वर्षशतैरपि।
वक्तुं न शक्यते विष्णु
किमन्यैर्बहुभाषितैः॥[20]
गंगा के पवित्रता, पापनाशकता आदि विषयों में
विश्वास करने में सामान्य लोगों की बात ही क्या? नास्तिक लोग भी गंगा को साधारण नहीं
समझते हैं-
‘पश्यन्ति नास्तिका गङ्गा
पापोपहतलोचनाः’[21]
पूर्व में ही कह दिया गया है कि मानव जन्म
से मृत्युपर्यन्त गंगा से किसी न किसी प्रकार से अवश्यमेव जुड़ा रहता है और जीवन के
अन्तिम समय में गंगा में मृत्यु होने से दुर्लभ मुक्ति तथा परम पद को प्राप्त करता
है-
गङ्गामृत्युमवाप्यैव परं
पदमाप्नुते।[22]
गङ्गायां मरणं प्राप्य लभन्ते
मुक्तिमुत्तमाम्।[23]
गंगा को माता कहते हुए कहा गया है कि जिस
प्रकार से कोई माँ अपने बच्चे को जन्म देकर, उसके मलमूत्रादि को साफ करती है उसी प्रकार
गंगा भी आश्रयी लोगों को अपने क्रोड में लेकर मलापहरण करती है-
यथा माता स्वयं जन्म मलशौचं
चकारयेत्।
क्रोडीकृत्य तथा तेषां गङ्गाप्रक्षालयेन्मलम्॥[24]
गंगा का वही जल, जो लोगों के पाप का नाश करता
है वहीं जल अमृत के समान शुद्ध, पवित्र एवं स्वास्थ्यवर्धक भी होता है जिसके सेवन से
मानव ही नहीं अपितु पशु-पक्षी भी तृप्ति को प्राप्त करते हैं-
‘पीत्वामृतमयं वारि मुक्तिमैश्वर्यमाप्नुयुः’[25]
तीर्थानां परमं तीर्थं नदीनां
परमा नदी।
मोक्षदा सर्वभूतानां महापातकिनामपि॥[26]
परम्परा से ज्ञात है कि किसी भी जीव को ८४
लाख योनियों में जन्म लेना पड़ता है। जन्म के अनन्तर वह अनेकानेक कृत्याकृत्य कर्म करता
है जो पाप और पुण्य के रूप में संचित होते हैं। मनुष्यों द्वारा किये गये अनेकानेक
जन्मार्जित पाप भी गंगा के स्पर्शमात्र से नष्ट हो जाते हैं-
कोटिजन्मार्जितं पापं भारते
यत्कृतं नृभिः।
गङ्गायां वातस्पर्शेननश्यतीति
श्रुतौ श्रुतम्॥[27]
गंगा कल्याणवाहिनी होने के साथ-साथ शोभावर्द्धिनी
भी है-
आकाशे दृश्यते तत्र तोरणं
सूर्यसन्निभम्।
जाम्बूनदमयं पुण्यं स्वर्गद्वारमिवायतम्॥[28]
अब संक्षेप में गङ्गा के प्रति मनुष्य के
विभिन्न कर्मों से प्राप्त होने वाले फलों के विषय में चर्चा किया जा रहा है-
गंगा के नामोच्चारणमात्र से ही विष्णुलोक
की प्राप्ति हो जाती है-
गङ्गा गङ्गेति यो ब्रूयाद्योजनानां
शतैरपि।
मुच्यते सर्वपापेभ्यो विष्णुलोकं
स गच्छति॥[29]
गंगा के स्मरणमात्र से मनुष्य इस संसार के
सभी दुःखों व पापों से बच जाता है-
ये स्मरिष्यन्ति लोकेऽत्र
जाह्नवीति सकृन्मुने।
न तेषां प्रभविष्यन्ति पापानि
दुःखमेव वा॥[30]
जिस दिन गंगा का नाम स्मरण नहीं किया जाता
है वही दिन दुर्दिन होता है-
न गङ्गास्मरणं यत्र दिने
समुपजायते।
तद्दिनं दुर्दिनं ज्ञेयं
मेघाच्छन्नं न दुर्दिनम्॥[31]
गंगा को उद्देश्य करके जो यात्रा करता है
वह पग-पग पर अश्वमेध तथा सैकड़ों वाजपेय यज्ञ का फल प्राप्त करता है-
गङ्गामुद्दिश्य यो गच्छेन्नरः
प्रयतमानसः।
पदे पदेऽश्वमेधः स्याद्वाजपेयशतं
तथा॥[32]
मन, वाणी और क्रिया द्वारा होने वाले पापों
से ग्रस्त मनुष्य भी गंगा के दर्शनमात्र से पवित्र हो जाता है-
वाङ्मनःकर्मजैर्ग्रस्तः
पापैरपि पुमानिह।
वीक्ष्य गङ्गां भवेत्पूतो
अत्र में नास्ति संशयः॥[33]
गंगा के दर्शन करने, जल का स्पर्श करने, जल
में स्नान करने से मनुष्य के सात पीढ़ी पहले तथा सात पीढ़ी आगे होने वाली सन्तानों का
तथा पितरों आदि का उद्धार हो जाता है-
सप्तावरान् सप्त परान् पितृंस्तेभ्यश्च
ये परे।
पुमांस्तारयते गङ्गा वीक्ष्य
स्पृष्ट्वावगाह्य च॥[34]
गंगा के जल का सेवन करने से जीव जिस उत्तम
गति को प्राप्त करता है, उसे वह तपस्या, ब्रह्मचर्य, यज्ञ अथवा त्याग से भी नहीं पा
सकता है-
तपसा ब्रह्मचर्येण यज्ञैस्त्यागेन
वा पुनः।
गतिं तां न लभेज्जन्तुर्गङ्गां
संसेव्य यां लभेत्॥[35]
गंगा के पवित्र जल में स्नान करने से जिनका
अन्तःकरण शुद्ध हो गया है, उन पुरुषों के पुण्य की जैसी वृद्धि होती है वैसी सैकड़ों
यज्ञ करने से भी नहीं हो सकता है-
स्नातानां शुचिभिस्तोयैर्गाङ्गेयैः
प्रयतात्मनाम्।
व्युष्टिर्भवति या पुंसां
न सा क्रतुशतैरपि॥[36]
अपने जन्म, जीवन और वेदाध्ययन को सफल बनाने
के लिए गंगा के समीप जाकर गंगाजल से देवताओं तथा पितरों का तर्पण करना चाहिए-
य इच्छेत् सफलं जन्म जीवितं
श्रुतमेव च।
स पितृंस्तर्पयेद् गाङ्गमभिगम्य
सुरांस्तथा॥[37]
शरीर का गंगा में त्याग करने पर धर्मराज यमराज
भी प्राणी के आज्ञा के अधीन हो जाते हैं तथा वह देवताओं के द्वारा भी प्रणम्ययोग्य
हो जाता है-
गङ्गायां त्यजतां देहमहमाज्ञावशः
स्वयम्।
ते नमस्याः सुरेन्द्राणां
दण्डशङ्कास्ति तत्कुतः॥[38]
प्राचीनकाल से ही भारतीय संस्कृति में मृतकों
के अस्थियों को गंगा में प्रवाहित करने का विधान रहा है। हिन्दू धर्म के लोगों का विश्वास
है कि मनुष्य की हड्डियाँ जितने समय तक गंगा के जल में पड़ी रहती हैं उतने हजार वर्षों
तक वह मृतक स्वर्गलोक में रहता है-
यावदस्ति मनुष्यस्य गङ्गातोयेषु
तिष्ठति।
तावद्वर्षसहस्राणि स्वर्गलोके
महीयते॥[39]
निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि गंगा में ही
सभी तीर्थ समाहित हैं उसी में सभी देवता भी निवास करते हैं। जिस गंगा के जल की एक-एक
बूँद में और तरल तरंगों के एक-एक शीतल कण में तीर्थ विद्यमान हों, उसके तीर्थत्व, पवित्रत्व,
पावनत्व का वर्णन करना सम्भव नहीं है। आध्यात्मिक रूप में गंगा जितनी पवित्र, निर्मल,
स्वच्छ और पतितपावनी है, वैज्ञानिक दृष्टि से उतनी ही अद्भुत भी। भौतिक जगत् के लिए
गंगा एक भौतिक साधन हो सकती है, पर इस देश की संतति के लिए ये एक महान् आध्यात्मिक
साधन है। गंगा पर आश्रित मनुष्य के बुद्धि, विचार, विवेक आदि ऊर्ध्वगामी हो जाते हैं।
[1] श्रीमद्भागवत, ९.९.१२
।
[2] पुनाति कीर्तिता
पापं दृष्टा भद्रं प्रयच्छति।
अवगाढ़ा च पीता च पुनात्यासप्तमं कुलम्॥ महाभारत, वनपर्व, ८५.९३ ।
[3] ऋग्वेद १०.७५.५
।
[4] नरसिंहपुराण ३७.३
।
[5] अमरकोश १.१०.३१
।
[6] हलायुध, ३.५१ ।
[7] अभिधानचिन्तामणि
४.१४७,१४८ ।
[8] श्रीगङ्गास्तोत्र
४ ।
[9] देवीभागवत ९.१३.४,
९.६.१७ ।
[10] वही ९.१४.१, ९.१३.१२४
।
[11] गान्धर्वेण विवाहेन
तां जग्राह हरिः स्वयम्’ देवीभागवत ९.१३.११३ ।
[12] ब्रह्मपुराण १७५.३३.३४
।
[13] ब्रह्मपुराण ७४.३
।
[14] देवीभागवत ९.१३.११६
।
[15] वही ९.१३.११६ ।
[16] शिवमहापुराण कोटिरुद्रसंहिता
२६.२९ ।
[17] ब्रह्मपुराण १७५.७९
।
[18] बृहन्नारदीयपुरान
६.११ ।
[19] वही ६.२३ ।
[20] बृहन्नारदीयपुराण
६.२६ ।
[21] वही, ५५.४९ ।
[22] वही, ५६.७ ।
[23] वृहद्धर्मपुराण
५६.१५ ।
[24] पद्मपुराण ६४.२७
।
[25] केदारखण्ड ३५.७
।
[26] कूर्मपुराण पूर्वभाग
३५.३२ ।
[27] देवीभागवत ९.११.२३
।
[28] वायुपुराण १५.१११
।
[29] महाभागवत ९.११.५०
।
[30] कल्याण, गङ्गा अङ्क, गीताप्रेस गोरखपुर, पृष्ठ सं
२६ ।
[31] कल्याण, गङ्गा अङ्क,
गीताप्रेस गोरखपुर, पृष्ठ सं २६ ।
[32] कल्याण, गङ्गा अङ्क,
गीताप्रेस गोरखपुर, पृष्ठ सं २७ ।
[33] कल्याण, गङ्गा अङ्क,
गीताप्रेस गोरखपुर, पृष्ठ सं २७ ।
[34] कल्याण, गङ्गा अङ्क,
गीताप्रेस गोरखपुर, पृष्ठ सं २८ ।
[35] कल्याण, गङ्गा अङ्क,
गीताप्रेस गोरखपुर, पृष्ठ सं २८ ।
[36] कल्याण, गङ्गा अङ्क,
गीताप्रेस गोरखपुर, पृष्ठ सं २९ ।
[37] कल्याण, गङ्गा अङ्क,
गीताप्रेस गोरखपुर, पृष्ठ सं ३० ।
[38] कल्याण, गङ्गा अङ्क,
गीताप्रेस गोरखपुर, पृष्ठ सं ३० ।
[39] कल्याण, गङ्गा अङ्क,
गीताप्रेस गोरखपुर, पृष्ठ सं ३० ।
एक टिप्पणी भेजें