भारतीय ज्ञान परम्परा में ईश्वरवचनस्वरूपिणी, ज्ञानामृतवर्षिणी, मानवमात्र का कल्याण करने वाली गीता; विचार से सरल, स्पष्ट और प्रभावोत्पादक उपदेशात्मक वचनों का अलौकिक संग्रह है। गीता में मानव के जन्म से मृत्युपर्यन्त सभी क्रियाओं का यथार्थ चित्रण प्रस्तुत किया गया है। गीता का दृष्टिकोण सैद्धान्तिक है तथा गीता का सन्देश सार्वभौम है। सभी विद्याओं के आदिस्रोत वेदों का सार-संक्षेप उपनिषद् हैं। उपनिषदों का भी सार-संक्षेप श्रीमद्भगवद्गीता को माना जाता है। गीता की महत्ता का प्रतिपादन करते हुए भगवान् वेदव्यास ने कहा है-
सर्वोपनिषदो गावः दोग्धा गोपालनन्दनः।
पार्थो वत्सः सुधीर्भोक्ता दुग्धं गीतामृतं महत्॥
श्रीमद्भगवद्गीता पर
अनेक
भाष्य
लिखे
गये
हैं।
गीता
पर
अनेक
भाष्यों
के
प्राप्त
होने
का
मूलकारण
इसका
लोकोपकारी
होना
है।
शङ्कराचार्य
ने
श्रीमद्भगवद्गीता
पर
लिखे
भाष्य
का
कोई
नाम
नहीं
दिया
है, यह
भाष्य ‘शाङ्करभाष्य’ के
नाम
से
प्रसिद्ध
है।
शङ्कराचार्य
अद्वैतवेदान्त
के
प्रवर्तक
हैं।
अद्वैतवेदान्त
ब्रह्म
या
आत्मा
या
परमात्मा
के
द्वैत
का
निराकरण
करके
जीवात्मा
या
आत्मा
परमात्मा
के
साथ
विलक्षण
ऐक्य
का
विवेचन
करता
है।
ब्रह्म
एवं
जगत्
को
देखने
का
तरीका
उनका
अद्वैत
रूप
है।
वे
सत्ता
की
दृष्टि
से
परमानन्द, सच्चिदानन्द
ब्रह्म
को
ही
सत्
मानते
हैं, उसके
अतिरिक्त
अन्य
सब
मिथ्या
है।[1]
रामानुजाचार्य विशिष्टाद्वैत
दर्शन
के
प्रवर्तक
हैं, डॉ०
राधाकृष्णन
के
अनुसार ‘यह
विशिष्ट
प्रकार
का
अद्वैत
है
जिसमें
सर्वोपरि
आत्मा, आकृति
में
बहुत्व
जीवात्मा
तथा
प्रकृति
के
रूप
में
विद्यमान
रहते
हुए
भी
एकत्व
को
प्रतिपादित
करती
है।’[2] विशिष्टाद्वैत
अद्वैत
के
निर्गुण-निर्विशेष
ब्रह्म
के
विशिष्ट
आत्मा
एवं
भौतिक
जगत्
से
ब्रह्म
शरीर
की
अवधारणा
को
पोषित
कर
सगुण
सविशेष्य
ब्रह्म
का
प्रतिपादन
करता
है।
इनके
अनुसार ‘ब्रह्म’ एक
जैविक
इकाई
है, जिसके
ईश्वर, जीव
और
प्रकृति, तीन
परस्पर
भिन्न
अंग
हैं।
ब्रह्म
के
अंगभूत
ईश्वर, जीवात्मा
एवं
प्रकृति
ही
रामानुज
के
मत
में
तीन
तत्त्व
हैं।
रामानुजाचार्य
द्वारा
गीता
पर
लिखित
भाष्य
को ‘रामानुजभाष्य’ कहा
गया
है।
गीता
की
इन्होंने
विशिष्टाद्वैतपरक
व्याख्या
की
है।
इनके
अनुसार
सृष्टि
के
पूर्व
जीव
एवं
जगत्
कारण
ब्रह्म
में
सूक्ष्मरूप
में
स्थित
रहते
हैं।
सूक्ष्मावस्था
में
जीव
और
जगत्
नाम-रूपविहीन
होते
हैं, इनकी
सत्ता
शुद्ध
एवं
अविकृत
होती
है।
चित्
और
अचित्
अर्थात्
जीव
और
जगत्
परस्पर
संयुक्त
न
होकर
अपने-अपने
स्वरूप
में
स्थित
होते
हैं।
ब्रह्म
की
इस
अवस्था
को
प्रलयावस्था
कहते
हैं।
ब्रह्म
की
स्थूल
या
कार्यावस्था
उसकी
कारणावस्था
से
भिन्न
होती
है।[3]
युद्धक्षेत्र में
सभी
आत्मीय
जनों
को
देखकर
शोकाकुल
हुए
अर्जुन
अपना
गाण्डीव
रख
देते
हैं
और
भगवान्
श्रीकृष्ण
से
कहते
हैं
कि
हे
भगवन्
मेरे
सामने
मेरे
अपने
ही
आत्मीय
जन
मुझसे
युद्ध
करने
के
लिए
तत्पर
हैं, मैं
उनके
साथ
कैसे
युद्ध
करुं, मैं
उनपर
कैसे
अपने
तीक्ष्ण
बाणों
से
प्रहार
करुं, जिन्होंने
मेरा
अपनी
गोद
में
पालन-पोषण
किया
है, जिन्होंने
मुझे
वेदशास्त्रादि
विद्याओं
का
ज्ञान
दिया
है, जिन्होंने
मुझे
धनुष
विद्या
सिखाया, जिनके
साथ
मैंने
अपना
पूरा
बचपन
व्यतीत
किया, वही
धार्तराष्ट्र
आज
मेरे
सामने
धनुष
लेकर
खड़े
हैं, मैं
उनपर
कैसे
बाणप्रहार
करुं।
हे
भगवन् ! इस
प्रकार
के
कायरतारूप
तथा
मोह
को
धारण
किये
हुए
मुझको
जो
कल्याणकारी
हो
ऐसा
मुझ
शरण
आये
हुए
को
शिक्षा
दीजिए।[4] अर्जुन
के
इस
प्रकार
के
वचन
सुनकर
श्रीकृष्ण
उपदेश
देना
प्रारम्भ
करते
हैं, जिसमें
कर्मयोग, भक्तियोग
एवं
ज्ञानयोग
की
प्रधानता
है।
ज्ञानयोग
के
अन्तर्गत
आत्मा, परमात्मा, जगत्
आदि
का
विशद
विवेचन
किया
गया
है।
गीता
में
उपदिष्ट
परमतत्त्व
को
शङ्कराचार्य
एवं
रामानुजाचार्य
ने
अपने-अपने
सिद्धान्तों
के
अनुसार
व्याख्यायित
किया
है।
शङ्कराचार्य ने
नामरूप
से
अभिव्यक्त, अनेक
कर्ताओं
और
भोक्ताओं
से
संयुक्त, प्रतिनियत
देशकाल, निमित्त
क्रिया
और
फल
का
आश्रय, मन
से
भी
अचिन्त्य, रचनास्वरूपवाला, जगत्
की
उत्पत्ति, स्थिति
और लयरूप, सर्वशक्तिमान
को ‘ब्रह्म’ शब्द
से
उपलक्षित
किया
है।[5] गीता
में
ब्रह्म
के
स्वरूप
का
विवेचन
करते
हुए
बताते
हैं
कि
वह
समस्त
उपाधियों
से
रहित
तथा
सत्
एवं
असत्
आदि
शब्द-प्रतीति
से
जानने
योग्य
नहीं
है।[6]
रामानुज ने ‘ब्रह्म’ पद
का
समष्टिरूप-जड़
प्रकृति
और
चेतनपुरुष
के
कारणरूप
परमपुरुष[7] के
रूप
में
अर्थ
करते
हुए
कहा
है
कि- परमात्मा
प्रकृति
से
सर्वथा
संसर्गरहित[8], शरीर
से
भिन्न
किन्तु
अपरिच्छिन्न[9], ज्ञानस्वरूप[10], परमाश्रय[11], सृष्टि
का
आन्तरिक
शासक
तथा
भौतिक
कारण
है।
विशिष्टाद्वैत
विकाररहित
परमब्रह्म
को
जीव
तथा
प्रकृति
से
भिन्न
एवं
अधिष्ठान
प्रतिपादित
करता
है।[12] रामानुज
ने
परमात्मा
पद
का
बहुब्रीहि
समास
करके ‘आत्मा
परं
समाहितः
सः’[13] अर्थात्
जो
विकाररहित
पुरुष
के
मन
में
स्थित
है
वह
जीवात्मा
ही
परमात्मा
है, अर्थ
किया
है।
शङ्कराचार्य ने
गीता
में
माया
पद
का
सर्वद्रष्टा, निर्विकार, अधिष्ठाता
अर्थ
करते
हुए
इस
अर्थ
को
तैत्तिरीयोपनिषद्[14] एवं
श्वेताश्वरोपनिषद्[15] से
प्रमाणित
करते
हुए
यह
सिद्ध
किया
है
कि
परमात्मा
समस्त
भोगों
के
सम्बन्धों
से
रहित, जगत्
का
एकमेव
चेतन
एवं
अध्यक्ष
की
भांति
परिवर्तनशील
जागतिक
स्वरूप
का
दृष्टा
एवं
भोक्ता
है।[16]
परमात्मा अविनाशी
स्वभाव
वाला, व्याप्त, धारण, पोषण
और
ऐश्वर्यादि
गुणों
से
युक्त
अधीश्वर, जड़-चेतन
का
आश्रयी, विलक्षण
तथा
आत्मा
से
भिन्न
है।[17] परमात्मा
से
आत्मा
की
भिन्नता
तथा
स्वरूप
से
अभिन्नता
विशिष्टाद्वैत
का
विशिष्ट
प्रतिपादन
है।
परमात्मा
जीवात्मा
की
चित्स्वरूप
भिन्नता
की
पुष्टि
के
साथ
ही
उसकी
प्रकृति
से
स्वभावतः
भिन्नता
एवं
प्रकृति
की
मिथ्या-प्रतीति
के
बदले
जगत्
की
यथार्थ
सत्ता
का
प्रतिपादन
करते
हुए
रामानुज
ने
कहा
है
कि
ईश्वर
वस्तुतः
स्वतन्त्र
यथार्थ
सत्ता
है
वह
इस
जगत्
के
मूल
में
आध्यात्मिक
तत्त्व
है
जिसके
कारण
जगत्
को
भ्रांतिमान
नहीं
कहा
जा
सकता।[18]
सर्वक्षेत्रेषु शब्द
की
व्याख्या
करते
हुए
शङ्कराचार्य
ने
बताया
है
कि
समस्त
शरीरों
में
जो
ब्रह्म
से
लेकर
स्तम्बपर्यन्त
अनेक
शरीररूप
उपाधियों
से
विभक्त
हुआ
क्षेत्रज्ञ
है, उसको
समस्त
उपाधिभेद
से
रहित
एवं
सत्
और
असत्
आदि
शब्द-प्रतीति
से
नहीं
जाना
जा
सकता
है।[19]
आद्य शङ्कराचार्य
ने ‘अहम्’ प्रभृति
पदों
को
निर्विकार, निर्गुण, नित्य, शुद्ध, बद्ध, मुक्त
सच्चिदानन्द
ब्रह्म
को
उपलक्षित
करने
के
लिए
प्रयोग
किया
है।[20] लेकिन
रामानुज
ने
इन
उत्तमपुरुष
एकवचन
के
पदों
को
क्षर-अक्षर
तथा
बद्ध
और
मुक्त
स्वरूप
को
परमात्मा
से
भिन्न
स्पष्ट
करने
के
लिए
प्रयुक्त
किया
है- ‘उत्तम
पुरुष
क्षर
और
अक्षर
नाम
से
निर्दिष्ट
बद्ध
और
मुक्त
दोनों
पुरुषों
से
भिन्न
है, वह
समस्त
वेदों
में
परमात्मा
संज्ञा
से
ज्ञेय
है।’[21]
शङ्कराचार्य कहते
हैं
कि
एक
ही
सत्य
आत्मा
अविद्या
द्वारा
नट
की
भांति
उत्पत्ति-विनाशादि
धर्मों
से
अनेकानेक
रूपों
में
कल्पित
हो
रहा
है।
इसी
को
भगवान्
श्रीकृष्ण
ने
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः
के
द्वारा
कहा
है
कि
सत्
प्रत्यय
का
व्यभिचार
नहीं
होता, और
असत्
का
कभी
व्यवहार
नहीं
होता
अर्थात्
प्रत्यक्ष
नहीं
होता
अतः
सत्
ब्रह्म
ही
एकमात्र
परमतत्त्व
है।[22]
रामानुज शङ्कर
के
मतों
का
खण्डन
करते
हुए
कहते
हैं
कि
भगवान्
के
द्वारा
उपदिष्ट
आत्मभेद
स्वाभाविक
है, आत्मभेद
दृष्टि
को
अज्ञान-जनित
मानने
वालों[23] के
मत
में
पारमार्थिक
दृष्टि
से
युक्त
परमपुरुष
निर्विशेष, कूटस्थ, नित्य, चैतन्य
आत्मा
के
यथार्थ
स्वरूप
का
साक्षात्कार
होने
के
कारण
उसमें
अज्ञान
और
उसके
कार्य
का
अभाव
है
अत
एव
उनके
द्वारा
अज्ञान-जनित
भेद
दर्शन
और
तज्जनित
उपदेश
के
व्यवहार
नहीं
बन
सकते।[24]
आत्मा अत्यन्त
निर्मल, स्वच्छ
और
सूक्ष्म
होता
है।
बुद्धि
का
भी
आत्मा
की
भांति
निर्मलत्व
सिद्ध
है, इसलिए
उसका
आत्मचैतन्य
के
आकार
से
आभासित
होना
सम्भव
है।
बुद्धि
से
आभासित
मन, मन
से
आभासित
इन्द्रियाँ
और
इन्द्रियों
से
आभासित
स्थूलशरीर
है।
इसी
से
सांसारिक
मनुष्य
देह
मात्र
में
आत्मदृष्टि
रखते
हैं।
ब्रह्म
यद्यपि
अत्यन्त
प्रसिद्ध, दुर्विज्ञेय, अतिसमीप
और
आत्मस्वरूप
है
तो
भी
वह
विवेकरहित
होकर
मनुष्य
को
अतिदूर
और
दूसरा
प्रतीत
होता
है।
परन्तु
जिनकी
बाह्य
बुद्धि
निवृत्त
हो
गयी
है, जिन्हें
गुरु
और
आत्मा
की
कृपा
का
लाभ
प्राप्त
है
उसके
लिए
इससे
समीय
सुप्रसिद्ध
अन्य
कुछ
नहीं
है।
शङ्कर
कहते
हैं
अज्ञान
आसक्ति
आदि
दोषों
से
कर्म
में
लगे
हुए
जिस
पुरुष
को
यज्ञ
से, दान
से
या
तप
से
अन्तःकरण
शुद्ध
होकर
परमार्थ-तत्त्वविषयक
ऐसा
ज्ञान
प्राप्त
हो
जाता
है, वही
ब्रह्म
है।[25]
उपसंहार
परमब्रह्म प्रायः
सभी
दर्शनों
का
विवेच्य
विषय
है।
तद्विषयक
संज्ञा
भिन्न-भिन्न
है।
तत्त्व
की
दृष्टि
से
कोई
दर्शन
एकतत्त्ववादी
है
तो
कोई
द्वैतवादी, या
बहुतत्त्ववादी।
वेदान्तदर्शन
में
कई
सम्प्रदाय
प्रचलित
हैं।
अद्वैत, विशिष्टाद्वैत, द्वैत, द्वैताद्वैत, शुद्धाद्वैत
आदि
मत
प्रसिद्ध
हैं।
सभी
आचार्यों
ने
ब्रह्म
के
स्वरूप
का
वर्णन
अपनी-अपनी
दृष्टि
से
किया
है।
ब्रह्म
के
अनेक
धर्मों, अनेक
गुणों, अनेक
स्वरूपों
का
वर्णन
किया
है।
शङ्कराचार्य
ने
केवल
परमब्रह्म
को
ही
सत्
माना
है, तद्व्यतिरिक्त
सम्पूर्ण
जगत्
मिथ्या
है, आभास
मात्र
है।
परमब्रह्म
निर्गुण
है।
लेकिन
रामानुज
ने
ब्रह्म
की
दो
स्थितियों
को
स्वीकार
करते
हुए, एक
को
सृष्टि
के
पूर्व
का
कारण
ब्रह्म
कहा
है
जो
चिदचित्
को
सूक्ष्मरूप
में
स्वयं
में
समाहित
करके
स्थित
है।
दूसरी
स्थिति
में
वह
स्थूल
या
कार्यावस्था
में
स्थित
होता
है।
इस
स्थिति
में
चिद्
और
अचिद्
अंश
स्थूल
होकर
नामरूप
ग्रहण
कर
लेते
हैं।
रामानुज
के
मत
में
ब्रह्म
सगुण
है
क्योंकि
निर्गुण
ब्रह्म
का
योगज-प्रत्यक्ष
भी
नहीं
हो
सकता।
रामानुज
ने
ईश्वर
की
प्रकृति
से
भिन्नता
तथा
जगत्
मिथ्यात्व
का
खण्डन
करके
शरीर
विशिष्ट
किन्तु
प्रकृति
से
भिन्न
परमसत्ता
की
सर्वेश्वरत्व
को
प्रतिपादित
किया
है।
अतः
निष्कर्षतः
कहा
जा
सकता
है
गीता
के
भाष्य
में
दोनों
भाष्यकारों
ने
अपने-अपने
मत
के
अनुसार
परमतत्त्व
को
सिद्धान्ततः
तथा
उदाहरणतः
सिद्ध
किया
है।
[1]
‘ब्रह्म
सत्यं
जगन्मिथ्या’
।
[2]
भारतीय
दर्शन, डॉ०
राधाकृष्णन
।
[3]
‘तदेवं
नामरूपविभागानर्हसूक्ष्मदशापन्न प्रकृतिपुरुषशरीरं ब्रह्म कारणवस्थानम्। जगतस्तदायत्तिरेव च प्रलयः। नामरूपविभागविभक्ति स्थूलचिदचिद्वस्तुशरीरं ब्रह्म कार्यावस्थम्। ब्रह्मणस्तत्थाविधस्थूलभाव एव सृष्टिरुच्यते।’–
वेदार्थसंग्रह,
पृ०
१७
।
[4]
कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसम्मोड्गचेताः।
यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्॥ गीता २.७
।
[5]
‘अस्य
जगतो
नामरूपाभ्यां
व्याकृतस्यानेककर्तॄतभोक्तृसंयुक्तस्य प्रतिनियतदेशकालनिमित्तक्रियाफलाश्रयस्य मनसाऽप्यचिन्त्यरचनारूपस्य जन्मस्थितिभङ्गं यतः सर्वज्ञत् सर्वशक्तेः कारणाद् भवति तद् ब्रह्मेति’
१.१.२ ब्र.सू.शाङ्करभाष्य ।
[6]
‘तं
निरस्तसर्वोपाधिभेदं सदसदादिशब्दप्रत्ययागोचरं विद्धि इति’
१३.२
गीता
शाङ्करभाष्य
।
[7]
‘तयोः
चिदचित्समष्टिभूतयोः प्रकृतिपुरुषयोः अपि परमपुरुषयोनिवं श्रुतिस्मृतिसिद्धम्।’
७/६ रामानुजगीताभाष्य ।
[8]
‘परममक्षरं
प्रकृतिविनिर्मुक्तात्मस्वरूपम्।’
८/३ रामानुज गीताभाष्य
[9]
‘ब्रह्म
बृहत्त्वगुणयोगि
शरीरादेः
अर्थान्तरभूतम्
स्वतः
शरीरादिभिः
परिच्छेदरहितं
क्षेत्रज्ञतत्त्वम् ।’
१३/१२
रामानुजगीताभाष्य
।
[10]
‘परब्रह्मभूतपरमपुरुषात्मकत्वानुसन्धानयुक्ततया ज्ञानाकारत्वम्।’
४/२४ रामानुजगीताभाष्य ।
[11]
‘प्रकृतिवियुक्तं
मत्समानाकारम्
अपुनरावृत्तिम्
आत्मानं
प्राप्नोति।’
८/१३ रामानुजगीताभाष्य ।
[12]
‘ब्रह्म
में
अपने
अन्दर
ही
स्वगत
भेद
है
और
वह
एक
संश्लिष्टपूर्ण
इकाई
है।
जिसमें
आत्माएं
तथा
प्रकृति
उसके
लिए
महत्त्व
की
सताएं
हैं।’ भारतीय
दर्शन
का
इतिहास, डॉ०
एस.एन. दासगुप्त, भाग-३, पृ० १४५-१४६ ।
[13]
‘परमात्मा
समाहितः
सम्यगाहितः।
स्वरूपेण
अवस्थितः
प्रत्यगात्मा
अत्र
परमात्मा
इत्युच्यते।’
६/७ रामानुजगीताभाष्य ।
[14]
‘यो
वेद
निहितं
गुहायां
परमे
व्योमन्।’ तैत्तिरीयोपनिषद्
२.८.१ ।
[15] ‘एको देवः सर्वभूतेषु गूढः सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा।’ श्वेताश्वरोपनिषद् ६.११ ।
[16]
‘ततः
च
एकस्य
देवस्य
सर्वाध्यक्षभूतचैतन्यमात्रस्य परमार्थतः सर्वभोगानभिसम्बन्धिनः अन्यस्य चेतनान्तरस्य’
९.१० गीता शाङ्करभाष्य ।
[17]
‘अव्ययस्वभातया
व्यापनभरणैश्वर्यादियोगेन च विसजातीय जानाति।’
१५/१९
रामानुजगीताभाष्य
।
[18]
‘एतस्य
लोकत्रयस्य
ईश्वरः
ईशितव्यात्
तस्माद्
अर्थान्तरभूतः।’
१५/१७
रामानुजगीताभाष्य
।
[19]
‘यः
क्षेत्रज्ञो
ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्तानेकक्षेत्रोपाधिप्रविभक्तः तं निरस्तसर्वोपाधिभेदं सदसदादिशब्दप्रत्ययागोचरं विद्धिः।’१३.२
गीता
शाङ्करभाष्य
।
[20]
‘नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभावत्वाद् अनावरज्ञानशक्तिः इति वेद अहम्।’
४/५ गीताशाङ्करभाष्य ।
[21]
‘सर्वासु
श्रुतिषु
परमात्मा
इति
निर्देशाद्
एव
हि
उत्तमः
पुरुषो
बद्धमुक्तपुरुषाभ्याम् अर्थान्तभूतः इति।’
१५/१७
रामानुजगीताभाष्य
।
[22]
‘परिशेष्यात्
सद्
एकम्
एव
वस्तु
अविद्यया
उत्पत्तिविनाशादिधर्मैः नटवद् अनेकधा विअक्ल्प्यते इति इदं भागवतं मतम् उक्तम्
‘नासतो
विद्यते
भावः’ इति
अस्मिन्
श्लोके।
सत्-प्रत्ययस्य
अव्यभिचाराद्
व्यभिचारात्
च
इतरेषाम्
इति।’ १८.४८
गीता
शाङ्करभाष्य
।
[23]
‘अज्ञानकृतभेददृष्टिवादे तु परमपुरुषस्य परमार्थदृष्टेः………………..।’ २/१२ रामानुजगीताभाष्य ।
[24] ‘अज्ञानकृतभेददृष्टिवादे तु परमपुरुषस्य परमार्थदृष्टेः निर्वेशेषकूटस्थनित्यचैतन्यात्मयथार्थात्मसाक्षात्कारात् निवृत्ताज्ञानतत्कार्यतया अज्ञानकृतभेददर्शनं तन्मूलोपदेशादिव्यवहाराः च न संगच्छन्ते।’
२/१२ रामानुजगीताभाष्य ।
[25]
‘यस्य
तु
अज्ञानाद्
रागादिदोषतो
वा
कर्मणि
प्रवृत्तस्य
यज्ञेन
दानेन
तपसा
वा
विशुद्धसत्त्वस्य
ज्ञानम्
उत्पन्नं
परमार्थतत्त्वविषयम् एकमेव इदं सर्वं ब्रह्मः’
२.१० गीता शाङ्करभाष्य ।
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