संस्कृत एवं संस्कृति ही भारत की प्रतिष्ठा के मुख्य हेतु हैं- ‘भारतस्य प्रतिष्ठे द्वे संस्कृतं संस्कृतिस्तथा’। संस्कृत प्राचीन विद्याओं का अजस्र स्रोत है। संस्कृत ही वेद, व्याकरण, दर्शन, आयुर्वेद, ज्योतिष, वास्तु आदि विद्याओं का केन्द्र है। संस्कृत में अनेक विषय ऐसे हैं जिनके सम्बन्ध में शोधच्छात्र, ज्ञानपिपासु अथवा अन्य जिज्ञासु अन्वेषण करते रहते हैं। मैं विभिन्न विषयों पर अन्वेषण करके समीक्षापूर्वक शोधलेख प्रस्तुत कर रहा हूँ, जिसके अध्ययन से आपके ज्ञान में निश्चित वृद्धि होगी। धन्यवाद…

मीमांसा दर्शन के अनुसार धर्म का स्वरूप :-: Form of Dharma According to Mimamsa Philosophy



        ‘धृञ् धारणे’ धातु से निष्पन्न धर्म शब्द धारण करने के अर्थ में प्रयुक्त होता है। महाभारत में ‘धारणाद् धर्म इत्याहुः’[1] व्युत्पत्ति वाक्य से धर्म के शाब्दिक अर्थ का बोध होता है। भारतीय दर्शन में प्रसंगवश धर्म का यत्र तत्र उल्लेख मिलता है। आस्तिक दर्शन के प्रमुख दर्शन मीमांसा दर्शन की प्रवृत्ति धर्मविवेक हेतु हुई है यथा- ‘अथ परमकारुणिको भगवान् जैमिनिधर्मविवेकाय द्वादशलक्षणीं प्रणिनाय’[2]। मीमांसा दर्शन के आधार ग्रन्थ जैमिनि सूत्र के प्रथम सूत्र में धर्म की जिज्ञासा की गयी है- ‘अथातो धर्मजिज्ञासा’[3]। वैशेषिक सूत्र में धर्म को अभ्युदय एवं निःश्रेयस का परमहेतु बताया है- ‘यतोऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः’[4]। अन्य शास्त्रों में भी धर्म के सन्दर्भ में अनेक उद्धरण प्राप्त होते हैं यथा- ‘आचारः परमो धर्मः’[5] ‘अहिंसा परमो धर्मः’[6] इत्यादि। धर्मशास्त्र के प्रथम आचार्य मनु ने धर्म के दस लक्षण बताये हैं-

धृतिः क्षमादमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः।

धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्॥[7]

        मीमांसा दर्शन में प्रयुक्त धर्म शब्द के सम्बन्ध में आचार्यों ने अनेक प्रकार से विचार विमर्श किया है। जहाँ धर्म शब्द के व्याख्यान के पूर्व ‘अथातो धर्मजिज्ञासा’ सूत्र में प्रयुक्त ‘अथ’ एवं ‘अतः’ शब्द को भी विवेचित किया है। संस्कृत वाङ्मय में अथ शब्द अनेक अर्थों में प्रयुक्त होता है यथा- ‘मङ्गलानन्तरारम्भप्रश्नकार्त्स्न्येष्वथो अथ’[8]। प्रस्तुत सूत्र में अथ शब्द आनन्तर्य अर्थ का बोधक है किन्तु मङ्गलार्थक होने से प्रकृत ग्रन्थ में मङ्गलाचरण का भी कार्य करता है। जब अथ आनन्तर्य का बोधक है तो आनन्तर्य से पूर्व किसी अन्य कर्म की अपेक्षा होती है जिसके समाधान में ‘अत्र अथशब्दो वेदाध्ययनान्तर्यवचनः’[9] वाक्य प्रस्तुत होता है जिसका आशय है- वेद का अध्ययन कर लेने के पश्चात्। प्रकृत सूत्र के प्रसंग में अतः शब्द वेद के दृष्टार्थत्व का सूचक है- ‘अतः शब्दो हि वेदाध्ययनस्य दृष्टार्थत्वं ब्रूते’[10]

        मीमांसा दर्शन में ‘चोदनालक्षणोऽर्थो धर्मः’[11] सूत्र से धर्म को प्रवृत्ति के अर्थ में उपदेशित किया गया है। जिसका शाब्दिक अर्थ है- किसी क्रिया में प्रवर्त्तक वचन से लक्षित होने वाला निःश्रेयस प्रापक अर्थ धर्म कहलाता है। चोदना शब्द भूत, वर्तमान, भविष्य, सूक्ष्म, व्यवहित, दूर आदि सभी प्रकार के अर्थों का बोध कराने में समर्थ है जो अन्य कोई इन्द्रिय नहीं कर सकती- ‘चोदना हि भूतं भवन्तं भविष्यन्तं सूक्ष्मं व्यवहितं विप्रकृष्टमित्येवञ्जातीयकमर्थं शक्नोत्यवगमयितु, नान्यत् किञ्चनेन्द्रियम्’[12]। आपदेव विरचित मीमांसा न्याय प्रकाश में किसी निश्चित फल को उद्दिश्य कर वेद विहित अर्थ (श्रेयस) के साधन को धर्म कहा है- ‘वेदेन प्रयोजनमुद्दिश्य विधीयमानोऽर्थो धर्मः’। जैसे कि ‘यजेत स्वर्गकामः’ इस वाक्य से स्वर्ग को उद्देश्य कर यज्ञ का विधान किया गया है। अतः स्वर्ग की प्राप्ति के उद्देश्य से वेद विहित साधन अथवा कर्म को धर्म कहते हैं। मीमांसा शास्त्र सर्वस्व नामक ग्रन्थ में धर्म को इस प्रकार से परिभाषित किया है- ‘धर्मव्यवहारदर्शनाद्वेदबोधितम् अनिष्टाननुबन्धीष्टसाधनमेव धर्मः’। मीमांसा सूत्र की विश्वप्रसिद्ध श्लोकबद्ध टीका श्लोकवार्त्तिक में दो श्लोकों से धर्म को व्याख्यायित किया है यथा-

द्रव्यक्रियागुणादीनां धर्मत्वं स्थापयिष्यते।

तेषामैन्द्रियकत्वेऽपि न ताद्रूप्येण धर्मता॥

श्रेयःसाधनता ह्येषां नित्यं वेदात्प्रतीयते।

ताद्रूप्येण च धर्मत्वं तस्मान्नेन्द्रियगोचरः॥[13]

        मीमांसा दर्शन के एक अन्य अतिप्रसिद्ध विद्वान् ने धर्म के सन्दर्भ में विवेचना प्रस्तुत की है कि यागादि ही धर्म है- ‘यागादिरेव धर्मः’[14]। इस लक्षण को अधिक परिष्कृत एवं विस्तृत करते हुए कहते हैं कि जो वेद का प्रतिपाद्य विषय हो, प्रयोजनवत् हो तथा सार्थक हो वह धर्म कहलाता है- ‘वेदप्रतिपाद्यः प्रयोजनवदर्थो धर्मः’[15]। प्रस्तुत लक्षण वाक्य में प्रयुक्त सभी पदों अनिवार्यता एवं उपयुक्तता को स्पष्ट करते हुए अर्थसंग्रहकार कहते हैं कि यदि लक्षणवाक्य में यदि ‘वेदप्रतिपाद्यः’ को ग्रहण न करें तो भोजनादि कर्म भी धर्म के अन्तर्गत आने लगेंगे। अतः धर्मलक्षण को भोजनादि में अतिव्याप्त होने से बचाने के लिए वेदप्रतिपाद्य शब्द का प्रयोग किया गया है- ‘भोजनादावतिव्याप्तिवारणाय वेदप्रतिपाद्यः इति’[16]। इसी प्रकार ‘प्रयोजनवत्’ शब्द को ग्रहण करने के उद्देश्य को बताते हुए कहते हैं कि जो स्वयं प्रयोजन अथवा साध्य है उसमें इस लक्षण की अतिव्याप्ति न हो, जैसे कि स्वर्ग स्वयं साध्य है परमानन्दस्वरूप है इसका कोई अन्य प्रयोजन नहीं है अपितु यह स्वयं प्रयोज्य है इसलिए स्वर्ग कभी धर्म नहीं हो सकता। ज्योतिष्टोमादि याग धर्म हैं क्योंकि इनका कोई साध्य होता है ये केवल साधनमात्र हैं, कहा भी है- ‘प्रयोजनेऽतिव्याप्तिवारणाय प्रयोजनवदिति’[17]। इसी प्रकार ‘अर्थः’ पद को ग्रहण करने का उद्देश्य बताते हैं कि वेदों में अनेक ऐसे कर्म विद्यमान हैं जिनका कोई न कोई प्रयोजन अवश्य होता है किन्तु उस कर्मफल की प्राप्ति सार्थक होती है अथवा अनर्थक; इसका भी अवलोकन करना आवश्यक होता है। जैसे कि वेदों में वर्णित श्येन याग सदैव अनर्थ का प्रापक होता है क्योंकि श्येन याग से शत्रु की सेना पर विजय तो प्राप्त हो जाती है किन्तु सेना की हत्या का पाप अवश्य लगता है इसलिए श्येन याग अनर्थक है तथा अनर्थफल को उत्पन्न करने वाला है- ‘अनर्थफलकत्वादनर्थभूते श्येनादावतिव्याप्तिवारणायार्थ इति’[18]

        इस प्रकार मीमांसा दर्शन में वर्णित धर्म शब्द प्रवृत्त्यर्थक है किन्तु अनर्थभूत कर्मों में प्रवृत्त करने वाला नहीं है क्योंकि यह उसी कर्म में प्रवृत्त करता है जो वेदविहित हो। ‘यागादिरेव धर्मः’ इस वाक्य से आचार्य ने अपने मत की पुष्टि भी की है। अतः मीमांसा दर्शन के अनुसार धर्म का स्वरूप यह विषय विभिन्न सन्दर्भों का उद्धरण देते हुए स्पष्ट किया गया।



[1] महाभारत

[2] अर्थसंग्रह

[3] मीमांसा सूत्र, १.१.१

[4] वैशेषिक सूत्र

[5] महाभारत

[6] महाभारत

[7] मनुस्मृति

[8] अमरकोष

[9] अर्थसंग्रह

[10] अर्थसंग्रह

[11] मीमांसा सूत्र, १.१.२

[12] मीमांसा सूत्र, शाबरभाष्य

[13] श्लोकवार्त्तिक, कारिका १३-१४

[14] अर्थसंग्रह

[15] वहीं

[16] वहीं

[17] वहीं

[18] वहीं

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