संस्कृत एवं संस्कृति ही भारत की प्रतिष्ठा के मुख्य हेतु हैं- ‘भारतस्य प्रतिष्ठे द्वे संस्कृतं संस्कृतिस्तथा’। संस्कृत प्राचीन विद्याओं का अजस्र स्रोत है। संस्कृत ही वेद, व्याकरण, दर्शन, आयुर्वेद, ज्योतिष, वास्तु आदि विद्याओं का केन्द्र है। संस्कृत में अनेक विषय ऐसे हैं जिनके सम्बन्ध में शोधच्छात्र, ज्ञानपिपासु अथवा अन्य जिज्ञासु अन्वेषण करते रहते हैं। मैं विभिन्न विषयों पर अन्वेषण करके समीक्षापूर्वक शोधलेख प्रस्तुत कर रहा हूँ, जिसके अध्ययन से आपके ज्ञान में निश्चित वृद्धि होगी। धन्यवाद…

उपनिषदों में मनोविज्ञान : एक विश्लेषण :-: Manas Science in the Upanishads : An Analysis


ज्ञानामृतवर्षिणी, सर्वकल्याणकारिणी उपनिषदों को भारतीय ज्ञान परम्परा में सर्वोच्चस्थान प्राप्त है। उपनिषदों में सर्वज्ञान निहित है। उपनिषदों में मुख्यरूप से ब्रह्मविद्या का प्रतिपादन हुआ है इसलिए इसे ब्रह्मविद्या कहते हैं। अपौरुषेय वेद का अन्तिम भाग होने से इसे वेदान्त भी कहते हैं। यह समस्त विद्याओं का आदिस्रोत एवं ज्ञान का अक्षय्य भण्डार है। यह चीरप्रदीप्त वह ज्ञानदीपक है जो सृष्टि के आदि से प्रकाश देता चला रहा है और लयपर्यन्त प्रकाशित करता रहेगा। इसके प्रकाश में वह अमरत्व है, जिसने सनातन धर्म के मूल का सिञ्चन किया है उपनिषद् का सामान्य अर्थ है- गुरु के पास श्रद्धापूर्वक बैठकर शिक्षा ग्रहण करना।

उपनिषद् शब्द की निष्पत्ति उप एवं नि उपसर्गपूर्वक गत्यर्थक (ज्ञानार्थक) षद्लृ विसरणगत्यवसादनेषु धातु से क्विप् प्रत्यय करके हुई है। जिसका आशय ऐसे ज्ञान से है जो ज्ञेय से अभिन्न देशकाल वस्तु के परिच्छेद से रहित परिपूर्ण ब्रह्म है वही उपनिषद् शब्द का अभिप्रेत अर्थ है- उपनिषद्यते प्राप्यते ब्रह्मात्मभावोऽनया इति उपनिषद् उपनिषद् शब्द का अमरकोश में धर्म एवं रहस्य अर्थ किया गया है- धर्मे रहस्युपनिषत्स्यात् उपनिषद् शब्द की व्याख्या इस प्रकार है- उपनिषादयति सर्वानर्थकसंसारं विनाशयति संसारकारणभूतामविद्यां शिथिलयति। ब्रह्म गमयति इति उपनिषद्।[1]

अर्थात् जो समस्त अनर्थों को उत्पन्न करने वाले संसार का नाश करती है, संसार की कारणभूत अविद्या को शिथिल करती है तथा ब्रह्म की प्राप्ति कराती है, वह उपनिषद् है।

 दाराशिकोह के द्वारा फारसी में अनुवाद कराये गये उपनिषदों का अध्ययन करके शोपेनहावर कहता है कि- “In the whole world, there is no study, expect that of the originals, so beneficial and so elevating as that of the Oupnekhat. It has been the solace of my life, it will be the solace of my death.”

अपने चरमलक्ष्य या पूर्णत्व को प्राप्त करना प्रत्येक मनुष्य के जीवन का परमलक्ष्य होता है। सही ज्ञान एवं मार्ग-निर्देशन से वह उस परमलक्ष्य को प्राप्त कर लेता है, लेकिन कभी-कभी सही ज्ञान एवं मार्ग-निर्देशन के प्राप्त होने पर भी वह अपने परम-लक्ष्य को नहीं प्राप्त कर पाता है। इसका मुख्य कारण है- उसके मन का विचलित हो जाना। चञ्चलता एवं अस्थिरता मन का स्वभाव है भगवान् श्रीकृष्ण ने भी कहा है- मनश्चञ्जलमस्थिरम्[2] लेकिन मन को स्थिर तथा नियन्त्रण में रखकर महान कार्यों का सम्पादन किया जा सकता है। इसका बहुत ही सुन्दर उदाहरण कठोपनिषद् में देखने को मिलता है, जब यमराज द्वारा दिये गये तीन वरदानों में से नचिकेता ने तीसरे वरदान के रूप में आत्मविषयज्ञान प्राप्त करने की जिज्ञासा व्यक्त की[3] तो आत्मज्ञान के अच्छे अधिकारी होने की परीक्षा करने के लिए यमराज ने नचिकेता के सामने अनेक भौतिक एवं दिव्य साधनों का लोभ प्रस्तुत किया[4], लेकिन अपने मन पर नियन्त्रण करते हुए, मन को विचलित होने देते हुए[5] नचिकेता आत्मज्ञान को जानने की बात पर डंटा रहा।[6] 

       मनुष्य की प्रगति उसके मन की बनावट पर निर्भर करती है। वह अपने मन को जितना ही नियन्त्रण में रखता है उतना ही सुखी और सम्पन्न अनुभव करता है। मन का उपनिषदों में विशद् वर्णन प्राप्त होता है। उपनिषदों में मन को ब्रह्म कहा गया है- मनो वै ब्रह्मेति[7] उपनिषदों में मन को सम्राट् भी बताया गया है- मनो वै सम्राट् परमं ब्रह्म[8] परम्परा से ज्ञात है कि यज्ञ में जैसी हवि अर्पित की जायेगी फल भी वैसा ही मिलता है इसी प्रकार मन जितना ही शुद्ध होता है विचार भी उतने ही अच्छे-अच्छे आते हैं इसलिए मन को हवि के रूप में निरूपित किया गया है- मनो हविः[9]

उपनिषद्कारों का मानना है कि अन्न से ही मन की उत्पत्ति होती है।[10] तथा मन की प्रवृत्ति मनुष्य के भोजन पर निर्भर करती है।[11] भिन्न-भिन्न प्रकार की मानसिक प्रवृत्तियाँ उसके सात्त्विकी, राजसी या तामसी भोजन का ही परिणाम होती हैं।[12] भोजन के स्थूल, मध्य तथा सूक्ष्म अंशों में से सूक्ष्म अंश ही मन का निर्माण करता है।[13]

उपनिषदों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि इस जड़चेतनात्मक जगत् का मूलकारण मन है- अस्य संसारवृक्षस्य मनोमूलमिदं स्थितम्[14] संसार में पुनर्जन्म, बन्धन तथा मोक्ष का भी मुख्य कारण मन ही है।[15] और इस संसार से मुक्ति का साधन भी मन ही है।[16] ईशोपनिषद् में मन को अपरिमित गति वाला बताया गया है।[17] केनोपनिषद् में भी विभिन्न सन्दर्भों में मन का विवेचन हुआ है।[18] कठोपनिषद् में मन को इन्द्रियों से श्रेष्ठ बताया गया है।[19] प्रश्नोपनिषद् में मन को इन्द्रियों का तिरोभाव स्थान निश्चित किया गया है।[20] बृहदारण्यकोपनिषद् में मन के विषय में- मनो ब्रह्मेति व्यजानात्। मनसो ह्येव खल्विमानि भूतानि जायन्ते। मनसा जातानि जीवन्ति। मनः प्रयन्त्यभिसंविशन्तीति कहा गया है।

उपनिषदों के समान वेदों में भी मन का विशद् वर्णन प्राप्त होता है। सायण ने मन के लिए अपने भाष्य में चित्त, प्रज्ञा, बुद्धि, अन्तःकरण तथा स्तोत्र शब्द का प्रयोग किया है।[21] सायण ने अपने भाष्य में मन का अर्थ मननसाधनमन्तःकरणम् किया है।[22] ऋग्वेद में मन एवं चित्त दोनों की समानता व्यक्त की गयी है- समानं मनः सह चित्तमेषाम्[23] यजुर्वेद में मन को हृदय में स्थित बताया गया है।[24] अथर्ववेद में भी मन को हृदय में स्थित बताया गया है।[25] ऋग्वेद में मन को पवित्र तथा कल्याणकारी बनाने के लिए प्रार्थना की गयी है भद्रं मनः कृणुष्व[26] एक मन्त्र के भाष्य में सायणाचार्य ने कहा है कि हमारे मन को शुभसंकल्पों वाला बनायें- अस्माकं मनः शुभसङ्कल्पं कुर्वित्यर्थः[27] यजुर्वेद के ३४ वें अध्याय में शिवसङ्कल्पसूक्त में मन को शुभसङ्कल्पों वाला होने की स्तुति की गयी है इसमें मन के विभिन्न कार्यों का वर्णन किया गया है। यजुर्वेद के मन्त्रों को उद्धृत करना प्रस्तुत विषय की दृष्टि से प्रासङ्गिक है-

             यज्जाग्रतो दूरमुदैति दैवं तदु सुप्तस्य तथैवैति।

दूरङ्गमं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु॥ यजु० ३४.

येन कर्माण्यपसो मनीषिणो यज्ञे कृण्वन्ति विदथेषु धीराः।

यदपूर्वं यक्षमन्तः प्रजानां तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु॥ यजु० ३४.

यत्प्रज्ञानमुत चेतो धृतिश्च यज्ज्योतिरन्तरमृतं प्रजासु।

यस्मान्नऽऋते किं कर्म क्रियते तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु॥यजु० ३४.३॥

येनेदं भूतं भुवनं भविष्यत् परिगृहीतममृतेन सर्वम्।

येन यज्ञस्तायते सप्तहोता तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु॥ यजु० ३४.

यस्मिन्नृचः साम यजूंषि यस्मिन् प्रतिष्ठिता रथनाभाविवाराः।

यस्मिंश्चित्तं सर्वमोतं प्रजानां तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु॥ यजु० ३४.

सुषारथिरश्वानिव यन्मनुष्यान्नेनीयतेभीशुभिर्वाजिनऽइव।

हृत्प्रतिष्ठं यदजिरं जविष्ठं तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु॥ यजु० ३४.

प्रासङ्गिक विषय होने के कारण भारतीय दर्शनों में मन को सभी तत्त्वों में श्रेष्ठ स्थान प्राप्त है। सांख्यदर्शन में मन को एकादशेन्द्रियों में प्रमुख तथा उभयात्मक इन्द्रिय कहा गया है।[28] मन से अधिष्ठित होकर ही चक्षु आदि पञ्चज्ञानेन्द्रियाँ तथा वागादिपञ्चकर्मेन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों में प्रवृत्त होती हैं।[29] मन को सङ्कल्पात्मक स्वरूप वाला कहा गया है।[30] न्याय-वैशेषिक दर्शन में मन को सुखादि का ग्रहण करने वाली इन्द्रिय बताया गया है।[31] जिसप्रकार प्रत्येक शरीर में आत्मा अलग-अलग है वैसे ही प्रत्येक आत्मा के साथ नियत होने से मन भी अनन्त, परमाणुरूप और नित्य है।[32]

योगवाशिष्ठ में मन को जड़ कहा गया है, यह सङ्कल्पात्मक होते हुए भी बुद्धि से प्रेरित होकर चलता है।[33] प्रभाकर मीमांसक के अनुसार मन का स्वरूप अणुरूप, संचारी एवं नित्य है- मनः अणुरूपं स्यात् सञ्चारी नित्यञ्च कुमारिल के मत में मन का स्वरूप परममहत्परिणाम एवं नित्य होता है- मनः परममहत्परिणामनित्यञ्च नैयायिक भी मन को अविनाशी मानते हैं न्याय मत में मन स्मृति, इच्छा, स्वप्न, सुख, दुःख की अनुभूति करने वाला अन्तरिन्द्रिय हैस्मृत्युपमानागम संशय प्रतिभास्वप्न ज्ञानोहाः सुखादि प्रत्यक्षमिच्छा मनसोलिंगानि[34]

विभिन्न मनोवृत्तियाँ

इन्द्रियों द्वारा ग्रहण किये गये विषयों को बुद्धि तक पहुँचाना, मन का प्रमुख कार्य है। मैं ज्ञाता हूँ या ज्ञेयइस प्रकार की संशयात्मक वृत्ति, मन ही करता है। सभी संकल्पों का मन ही एकमात्र आश्रय है।[35] किसी से बात करते समय प्रायः यह सुनने को मिलता है कि मेरा मन अन्यत्र था इसलिए नहीं सुन पाया या नहीं देख पाया; इससे सिद्ध होता है इन्द्रियों के माध्यम से मन से ही सुनता है और मन से ही देखता है।[36] अतः जिसकी सन्निधि होने पर, रूपादि के ग्रहण में समर्थ नेत्र आदि के होते हुए भी उन्हें अपने-अपने विषय का ज्ञान नहीं हो पाता है और जिसके रहने से ज्ञान हो जाता है, वह उन नेत्रादि से भिन्न समस्त इन्द्रियों के विषयों से सम्बन्ध रखने वाला मन नाम का अन्तःकरण है। मन एक प्रग्रह (लगाम) है, सारथी की कुशलता से प्रग्रह द्वारा घोड़े को वश में करके गन्तव्य स्थान पर पहुँचा जाता है।[37]

बृहदारण्यकोपनिषद् में मन के अनेक रूपों का वर्णन किया गया है, काम, संकल्प, श्रद्धा, अश्रद्धा, धैर्य, अधैर्य, लज्जा, भय आदि मन के ही रूप हैं- कामः सङ्कल्पो विचिकित्सा श्रद्धाऽश्रद्धा धृतिरधृतिर्ह्रीर्धीर्भीरत्येतत्सर्वं मन एव[38] मन की शक्तियाँ अनन्त हैं, अतः उसे अनन्त और अपरिमित कहा गया है।[39] मन को ही इस जगत् में जन्म लेने का मुख्य कारण कहा गया है, मन की सात्त्विकी, राजसी और तामसी वृत्ति ही जीवों के जन्म, स्थिति तथा मरण का कारण होती है।[40] तेजबिन्दूपनिषद् में पाँच मन्त्रों में मन के स्वरूप विभिन्न वृत्तियों का वर्णन किया गया है-

मन एव जगत्सर्वं मन एव महारिपुः। मन एव हि संसारो मन एव जगत्त्रयम्॥

मन एव महद्दुःखं मन एव जरादिकम्। मन एव हि कालश्च मन एव मलं तथा॥

       मन एव हि सङ्कल्पो मन एव हि जीवकः। मन एव हि चित्तं मनोऽहङ्कार एव च॥

मन एव महद्बन्धं मनोऽन्तःकरणं तत्। मन एव हि भूमिश्च मन एव हि तोयकम्॥

       मन एव हि तेजश्च मन एव ही मरुन्महान्। मन एव हि चाकाशं मन एव हि शब्दकम्॥ [41]

मन का निवासस्थान

भिन्न-भिन्न शास्त्रों में मन का निवासस्थान भी भिन्न-भिन्न बताया गया है। प्रश्नोपनिषद् में मन का स्थान गले के अन्त में बताया गया है[42] शतपथ ब्राह्मण के अनुसार मन, हृदय में रहता है[43] मन शरीर के प्रत्येक रोवों में रहता है[44] यजुर्वेद में मन को हृदय में स्थित बताया गया है।[45] अथर्ववेद में भी मन को हृदय में स्थित बताया गया है।[46] ऐतरेयोपनिषद् में मन को हृदय से उत्पन्न हुआ बताया गया है।[47] कि चन्द्रमा ने मन का रूप धारण कर हृदय में प्रविष्ट किया।[48]

मन, स्वभाव से ही चञ्चल और स्थिर है। मन की चञ्चलता, मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है। अनित्य जगत् से मुक्ति का एकमात्र साधन मन को एकाग्र करना है। शास्त्रों में कहा गया है कि मन की शुद्धि का एकमात्र स्रोत अध्यात्मविद्या है।[49] योगशास्त्र इस दिशा में महद्भूमिका निभा रहा है, क्योंकि उसका प्रयोजन ही चित्त को वृत्तियों में गमन करने से रोकना है।[50] मन का सात्त्विक रूप उत्तम होता है क्योंकि मन की सात्त्विक वृत्ति ही जीव को इस नित्यानित्य मोहमाया से मुक्ति दिला सकती है।[51] मन से ही मन की वृत्तियों को शान्त कर लेने के बाद उस परब्रह्म का दर्शन हो जाता है जो अत्यन्त दुर्लभ है।[52] मैत्रेय्युपनिषद् में कहा गया है कि उस परमात्मा की प्राप्ति मन के द्वारा ही हो सकती है।[53]

तस्मिन्मनो विलीयते मनसि सङ्कल्पविकल्पे दग्धे पुण्यपापे

सदाशिवः शक्त्यात्मा सर्वत्रावस्थितः स्वयञ्ज्योतिः

शुद्धो बुद्धो नित्यो निरञ्जनः शान्तः प्रकाशत इति॥[54]



[1] जयराम सन्देश, हरिद्वार, अर्द्धवार्षिक पत्रिका, उपनिषद् विशेषांक, दिसम्बर २०१७, पृष्ठ ३५

[2] गीता /२४

[3] येयं प्रेते विचिकित्सा मनुष्येऽस्तीत्येके नायमस्तीति चैके।

  एतद्विद्यामनुशिष्टस्त्वयाहं वराणामेष वरस्तृतीयः॥ कठोपनिषद् //२०

[4] शतायुषः पुत्रपौत्रान्वृणीष्व बहून्पशून्हस्तिहिरण्यमश्वान्।

  भूमेर्महदायतनं वृणीष्व स्वयं जीव शरदो यावदिच्छसि॥ कठोपनिषद् //२३,२४,२५

[5] श्वोभावा मर्त्यस्य यदन्तकैतत्सर्वेन्द्रियाणां जरयन्ति तेजः।

  अपि सर्वं जीवितमल्पमेव तवैव बाहास्तव नृत्यगीते॥ कठोपनिषद् //२६

[6] यस्मिन्निदं विचिकित्सन्ति मृत्यो यत्साम्पराय महति ब्रूहि नस्तत्।

  योऽयं वरो गूढ़मनुप्रविष्टो नान्यं तस्मान्नचिकेता वृणीते॥ कठोपनिषद् //२९

[7] बृहदाण्यकोपनिषद् //

[8] बृहदाण्यकोपनिषद् //

[9] चित्त्युपनिषद् /

[10] अन्नात्प्राणो मनः सत्यं लोकाः कर्मसु चामृतम्। मुण्डकोपनिषद् .

[11]अन्नमयं हि सोम्य मनःछान्दोग्योपनिषद् //

[12]आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धिः सत्त्वशुद्धौ ध्रुवा स्मृतिः स्मृतिलंभे सर्वग्रन्थीना विप्रमोक्षःछान्दोग्योपनिषद् /२६/

[13]अन्नमशितं त्रेधा विधीयते। तस्य यः स्थविष्ठो धातुस्तत्पुरीषं भवति, यो मध्यमस्तन्मांसं योऽणिष्ठस्तन्मनःछान्दोग्योपनिषद् //

[14] मुक्तिकोपनिषद् /३७

[15]मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोःशाट्याय०

[16] सरूपोऽसौ मनोनाशो जीवन्मुक्तस्य विद्यते।

   अरूपस्तु मनोनाशो वैदेही मुक्तिगो भवेत्॥ मुक्तिकोपनिषद् /३५

[17]अनेजदेकं मनसो जवीयोईशोपनिषद्

[18]केनेषितं पतति प्रेषितं मनः’, ‘यन्मनसा मनुते येनाहुर्मनो मतम्केनोपनिषद्

[19]इन्द्रियेभ्यः परं मनःकठोपनिषद् ..

[20]परे देवे मनस्येकी भवतिप्रश्नोपनिषद् .

[21] ऋग्वेद /१२/१८, /१०२/, /११९/, १०/१२१/, १०/१७७/, १०/१९१/ पर सायणभाष्य

[22] ऋग्वेद १०/१९१/ पर सायणभाष्य

[23] ऋग्वेद १०/१९१/

[24]हृत्प्रतिष्ठंयजु० ३४/

[25]हृदि श्रितम्अथर्ववेद /१८/

[26] ऋग्वेद /६२/

[27] ऋग्वेद १०/२५/ पर सायणभाष्य

[28]उभयात्मकमत्र मनःसांख्यकारिका २७

[29]बुद्धीन्द्रियं कर्मेन्द्रियञ्च; चक्षुरादीनां वागादीनां मनोऽधिष्ठितानामेव स्वस्वविषयेषु प्रवृत्तेःसांख्यकारिका तत्त्वकौमुदी २७

[30]सङ्कल्पेन रूपेण मनो लक्ष्यते।सांख्यकारिका तत्त्वकौमुदी २७

[31]सुखाद्युपलब्धिसाधनमिन्द्रियं मनः।तर्कसंग्रह द्रव्यलक्षणप्रकरण

[32]तच्च प्रत्यात्मनियतत्वादनन्तं परमाणुरूपं नित्यञ्च।तर्कसंग्रह द्रव्यलक्षणप्रकरण

[33] मनश्चैवं जडं मन्ये संकल्पात्मकं शक्तिमत्

    क्षेपणैरिव पाषाणः प्रेर्यते बुद्धि निश्चयैः॥ यो.वा.निर्वाण प्रकरण ७८।२०

[34] न्यायसू० २८

[35] सर्वेषां संकल्पानां मन एकायनम्।  बृहदाण्यकोपनिषद् //११

[36]अन्यत्रमना अभूवं नादर्शमन्यत्रमना अभूवं नाश्रौषमिति मनसा ह्येव पश्यति मनसा शॄणोति।बृहदा० //

[37]मनः प्रग्रहमेव कठोपनिषद्

[38] बृहदाण्यकोपनिषद् ..

[39]मनो वा अपरिमितम्कौषीतकि २६/

[40] मन एव हि बिन्दुश्च उत्पत्तिस्थितिकारणम्।

   मनसोत्पद्यतेबिन्दुर्यथा क्षीरां गतात्मकम्॥ योगकुं० /

[41] तेजबिन्दूपनिषद् /९८-१०२

[42] मनसः स्थानं गलान्तम्

[43] हृदये इति मनो उपस्थितमिति

[44] मनः तनुषु विभ्रमतु

[45] सुषारथिरश्वानिव यन्मनुष्यान्नेनीयतेऽभीशुभिर्वाजिन इव।

   हृत्प्रतिष्ठं यदजिरं जविष्ठं तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥ यजुर्वेद ३४/

[46]हृदि श्रितम्अथर्ववेद /१८/

[47]हृदयान्मनोऐतरेयोपनिषद् ..

[48]चन्द्रमा मनोभूत्वा हृदयं प्राविशत्ऐतरेयोपनिषद् .

[49]मनःशुद्धिरान्तरम्। तदध्यात्मविद्यया लभ्यम्।शांडिल्योपनिषद् //

[50]योगश्चित्तवृत्तिनिरोधःपातञ्चलयोगसूत्र /

[51]मनसः सत्त्वमुत्तमम्। सत्त्वादधिमहानात्मा महतोऽव्यक्तमुत्तमम्।कठो० /

[52] मनसा मन आलोक्य वृत्तिशून्यं यदा भवेत्।

   ततः परं परब्रह्म दृश्यते सुदुर्लभम्। यो०शि० /६२

[53]मनसा प्राप्यते त्वात्मा ह्यात्मापत्त्या निवर्तते मैत्रे० /

[54] हंसोपनिषद् ११



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