भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवां सस्तनूभिर्वयशेमहि देवहितं यदायुः॥[1]
मानवीय मेधा की पराकाष्ठा को प्रदर्शित करने वाले अनुपम-साहित्य उपनिषदों ने अपने ऐतिहासिक विकासक्रम में मानवजाति को असंख्य बार अपनी पूर्णता का साक्षात्कार कराने में मार्गदर्शन किया है। वैदिक साहित्य में उपनिषदों का स्थान सबसे अन्त में है जैसा कि डॉ. राधाकृष्णन् की मान्यता है कि “उपनिषदें वेदों के अन्तिम भाग हैं इसलिए इन्हें वेदान्त की संज्ञा दी गई है जिससे यह ध्वनित होता है कि वैदिक शिक्षाओं का सार इसमें है। उपनिषदें नींव के रूप में हैं जिनके ऊपर बहुत से भारतीय दर्शनशास्त्र और धार्मिक सम्प्रदायों के भवन खड़े हैं”[2]।
संसार में सर्वत्र सुख-दुःख, लाभ-हानि, जीवन-मरण, दरिद्रता-सम्पन्नता, रुग्णता-स्वस्थता और बुद्धिमत्ता-अबुद्धिमत्ता आदि वैभिन्न्य स्पष्ट रूप से दिखायी पड़ता है, पर यह वैभिन्न्य दृष्ट-कारणों से ही होना आवश्यक नहीं, कारण कि ऐसे बहुत उदाहरण प्रात होते हैं कि एक माता-पिता के एक साथ जन्मे युग्म-बालकों की शिक्षा-दीक्षा, लालन-पालन समान होने पर भी व्यक्तिगत रूप से उनकी प्रकृति भिन्न-भिन्न होती है। इस बात से स्पष्ट है कि जन्म-जन्मान्तर के धर्माधर्मरूप ‘अदृष्ट’ ही इन भोगों का कारण है। जीवन में हम जो कुछ भी कार्य करते हैं, वे ही हमारे प्रारब्ध बनते हैं। मनुष्य जब जन्म लेता है तब वह अपना अदृष्ट (प्रारब्ध या भाग्य) साथ लेकर आता है, जिसे वह भोगता है। यही से सदाचार का अवलोकन प्राप्त होता है।
सदाचार व्यक्ति, समाज एवं राष्ट्र के अभ्युदय का मूल स्रोत है। यदि समाज में सदाचार अप्रतिष्ठित हो जाता है तो राष्ट्र में कदाचार स्वभावतः बढ़ जाता है। सदाचार तथा कदाचार परस्पर विरुद्ध हैं। सदाचार परस्पर विश्वास, सौमनस्य, सुख एवं शान्तिदायक है किन्तु कदाचार का परिणाम समाज या राष्ट्र में सर्वत्र परस्पर अविश्वास, कलह, दैन्य तथा शान्ति फैलाने वाला है। वर्तमान में हमारा राष्ट्र धीरे-धीरे कदाचार की ओर अग्रसर हो रहा है, जिसका परिणाम भी सुस्पष्ट परिलक्षित हो रहा है। पाश्चात्त्य विद्वान् जे० मिलट सेवर्न ने कहा है कि ‘मानव सौ वर्ष तक जीवित रह सकता है यह कोई काल्पनिक वर्णन नहीं है। लेकिन यदि उसके साथ कोई दुर्घटना या दैवात् कोई विघ्न उपस्थित न हो तो’[3]। इसके माध्यम से सेवर्न ने सदाचार की ओर इंगित किया है।
सदाचार का सीधा सा अर्थ है- उत्तम आचरण। सदाचार में सहिष्णुता, क्षमा, संयम, अहिंसा और धैर्य आदि गुण होते हैं, जिनके कारण वह कभी भी तनावग्रस्त नहीं रहता और सदैव आनन्द में रहता है, और समाज में आदर व सम्मान प्राप्त करता है किन्तु दुराचारी व्यक्ति सदैव पाप में संलिप्त रहता है इस कारण वह रोगग्रस्त, व्याकुल तथा दुःखी रहता है।
मनुष्य के व्यवहार पर ही उसकी जीवन शैली निर्भर करती है और उसी के अनुसार उसे समाज में सम्मान अथवा असम्मान प्राप्त होता है। राम के समान आचरण करना चाहिए रावण के समान नहीं- ‘रामादिवत् प्रवर्त्तितव्यं न तु रावणादिवत्’ऐसा हमारे ग्रन्थों में प्राप्त होता है इसका कारण सदाचार ही है क्योंकि रावण सदाचारी पुरुष नहीं था लेकिन राम सदाचारी पुरुष थे इसीलिए राम के समान आचरण करने के लिए कहा गया है। सदाचारी पुरुष जब तक जिन्दा रहता है तब तक समाज में उसका सम्मान तो होता ही है लेकिन मृत्यु को प्राप्त हो जाने पर भी लोग उसी प्रकार से उसका सम्मान करते हैं जैसे- संत कबीर, स्वामी विवेकानन्द, स्वामी रामदास, रामकृष्ण परमहंस आदि।
उपनिषदों में सदाचार पर बल दिया गया है[4], वहाँ अहं की अन्तःपर्याप्तता के सिद्धान्त का खण्डन करके नैतिक गुणों के पालन पर बल दिया गया है। मनुष्य अपने कर्मों के लिए स्वयं उत्तरदायी होता है। दुष्कर्म व्यक्ति का स्वतन्त्र कार्य है जो वह अपनी स्वतन्त्रता को अपने निजी उत्कर्ष के लिए प्रयुक्त करता है। रामानुजाचार्य कहते हैं कि यदि हम दुष्कर्म से नाता न तोड़ें तो हम मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकते हैं।[5] मनुष्य ईश्वर और प्रकृति के बीच मध्यस्थ है और उसे ज्ञान को साकार रूप देकर सृष्टि के कार्य को पूर्ण करना है, उसे उसके भीतर जो कुछ अन्धकारमय है उसे आलोकित करना चाहिए और जो निर्बल है उसे सबल बनाना चाहिए।
उपनिषदों में कहा गया है कि इस भव से मुक्ति पाने के लिए सत्कर्म ही उचित मार्ग है अन्यथा जो दुश्चरित्र हैं, जिनका मन अशान्त तथा विक्षिप्त रहता हो वे प्रज्ञान द्वारा भी ब्रह्म को नहीं प्राप्त कर सकते-
नाविरतो दुश्चरितान्नाशान्तो नासमाहितः।
नाशान्तमानसो वापि प्रज्ञानेनैनमाप्नुयात्॥[6]
ऋग्वेद में एक स्थान पर सप्त मर्यादा का वर्णन प्राप्त होता है- हिंसा, चोरी, व्यभिचार, मद्यपान, जुआ, असत्य भाषण और इन पापों को करने वाले का सहयोग करना। इनमें से एक भी पाप करने पर पापी कहलाता है और जो धैर्य से इन हिंसादि पापों को छोड़ देता है वह निस्सन्देह जीवन का स्तम्भ होता है मोक्ष का भागी होती है।[7]
मुण्डकोपनिषद् में स्पष्टतः कहा गया है कि सत्य की ही विजय होती है, असत्य की नहीं। ऋषि लोग जिनकी समस्त कामनायें पूर्ण हो चुकी हैं वे सत्यलोक को प्राप्त करते हैं।[8] प्रश्नोपनिषद् में सत्य की महिमा का उल्लेख करते हुए महर्षि भारद्वाज ने बताया है कि जो सत्य भाषण नहीं करता वह सूख जाता है, इसका अभिप्राय यह है कि असत्य बोलने का साहस नहीं करना चाहिए।[9] यहाँ सत्य ही सदाचार का मुख्य अङ्ग है जिससे पुरुषों में सत्त्व की भावना उत्पन्न होती है। ऋषि दयानन्द ने सत्य को प्रधानता दी है तथा सत्य को ही ‘ऋत्’ शब्द से संबोधित करते हुए आर्य समाज का नियम बनाया है।[10] और कहा है कि “सत्यभाषण और आचरण से उत्तम धर्म का कोई लक्षण नहीं है”[11]।
सदाचार से व्यक्ति का आज तो सुधरता ही है साथ ही उसे प्रारब्ध भी प्राप्त होता है जो उसे उसके अगले जन्म में सुख प्रदान करता है। व्यक्ति को निःसंकोच भाव से सदाचार करना चाहिए। ऐसा कर्म जिससे किसी को किसी प्रकार का कष्ट न प्राप्त हो वहीं सदाचार है।
उपसंहार
मानव स्वभाव सर्वथा अपरिवर्तनीय नहीं है, फिर भी उसमें पर्याप्त स्थायित्व है। इसीलिए प्राचीन ग्रन्थों का अध्ययन उपयोगी रहता है। जिसका अध्ययन करके व्यक्ति अपने व्यवहार का मूल्यांकन करता है। सदाचार ही एक ऐसा गुण है जो मनुष्य को देवत्व की ओर ले जाता है। भारतीय समाज में चरित्र को महत्त्वपूर्ण माना गया है, कहा भी गया है-“if character is lost everything is lost” इसका आशय है कि धन गया तो कुछ नहीं गया, स्वास्थ्य गया तो कुछ गया और चरित्र गया तो सर्वस्व चला गया। इसीलिए भारतीय समाज में सदाचारी व्यक्ति का सम्मान होता है । हमारा समाज ज्ञान को विशेष महत्त्व देता है। ज्ञानहीन पुरुष को भर्तृहरि ने पूँछ विहीन पशु की संज्ञा दी है।[12] लेकिन ज्ञान से भी बढकरर है चरित्र, शास्त्र कहता है कि दूसरों की स्त्री को माता और दूसरे के धन को मिट्टी का ढेला समझना चाहिए-
आचाराल्लभते ह्यायुराचाराल्लभते श्रियम्।
आचाराल्लभते कीर्ति पुरुषः प्रेत्य चेह च॥[13]
[1] यजुर्वेद २५/२१
[2] The Upanishads from the including protions of the Vedas, and are therefore called the Vedants, or the end of the Vedas, a denomination which suggesits that they contain the eccence of the Vedic teachings. – Indian Philosophy, Second Edition -pp.137
[3] That one may attain to the age of one hundred years or more in no visionary statement. According to physiopogical and nature laws the duration of human life should be at least five times the period necessary to reach full growth. This is a prevailing law which is fully exemplified in the brute creation. The horse grows five years, and lives to about twenty five or thirty; the dog two and a half and lives to about twelve or fourteen; the camel grows eight years, and lives forty; the cat one and a half, and lives nine or ten; the hare grows one year, and lives eight; and all the larger animals live about five times longer than their growing period. Man grows to about twenty or twenty-five years; hence if accidents could be excluded, his normal duration of life should not be less than one hundred. – The Kalpaka, Live to be a hundred by J. Millott Severn.
[4] मुण्डकोपनिषद् ३/२/४ ।
बृहदारण्यकोपनिषद् ४/४/२३ ।
[5] कठोप. १.२.२-३ पर अपने भाष्य में रामानुज लिखते हैं “इस श्लोक से हमें यह शिक्षा मिलती है कि ध्यान से दिन-प्रतिदिन अधिक पूर्ण होना चाहिए, तब तक सिद्धि नहीं मिल सकती जबतक कि भक्त समस्त बुराई से नाता नहीं तोड़ लेता है।“ ब्रह्मसूत्र, ४.१.१३ पर रामानुज भाष्य।
[6] कठोप. १/२/२४
[7] सप्त मर्यादाः कवयस्ततक्षुस्तासामेकामिदभ्यंहुरो गात्।
आयोर्ह स्कम्भ उपमस्य नीळे पथां विसर्गे धरुणेषु तस्थौ॥ ऋ.१०/५/६
[8] सत्यमेव जयते नानृतं सत्येन पन्था विततो देवयानः ।
येनाक्रमन्त्यृषयो ह्याप्तकामा यत्र तत् सत्यस्य परमं निधानम् ॥ मु. ३/१/६
[9] समूलो वा एष परिशुष्यति योऽनृतमभिवदति। प्रश्नोप. ६/१
[10] आर्य समाज का तृतीय नियम।
[11] दयानन्द ग्रन्थमाला, भाग दो, पृ० ३९६ ।
[12] नीतिशतक, 13
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