भारतीय ज्ञान परम्परा में वेद ज्ञान के
अनादि स्रोत हैं। वेद का शाब्दिक अर्थ ज्ञान होता है। विभिन्न विद्याओं से ओतप्रोत
यह वेदशास्त्र लौकिक एवं अलौकिक इष्ट की प्राप्ति कराता है तथा अनिष्ट का परिहार
करता है। वेद की प्रामाणिकता किसी अन्य के द्वारा नहीं की जा सकती क्योंकि यह इसका
स्वतः प्रमाणत्व सिद्ध है। चतुर्वेदों के विश्वविश्रुत भाष्यकर्ता सायणाचार्य कहते
हैं कि ‘इष्टप्राप्त्यनिष्टपरिहारयोरलौकिकमुपायं यो ग्रन्थो वेदयति स वेदः’
अर्थात् जो शास्त्र इष्ट की प्राप्ति एवं अनिष्ट के परिहार का अलौकिक उपाय बताता
है वह वेद है। ऋक्प्रातिशाख्य की व्याख्या में विष्णुमित्र कहते हैं कि ‘विद्यन्ते
ज्ञायन्ते लभ्यन्ते इभिर्धर्मादिपुरुषार्थाः इति वेदाः’। वेदों के सन्दर्भ में
अनेक उक्तियाँ प्राप्त हैं। पुनः वेद की उत्पत्ति के प्रसंग में भी अनेक मत
प्रसिद्ध हैं। चार्वाक, जैन, बौद्ध एवं न्यायादि दर्शनों ने वेद को अनित्य एवं
पौरुषेय माना है तथा कुछ ने वेद को अनादि एवं अपौरुषेय माना है।
दार्शनिक सिद्धान्त में कार्य अनित्य
होता है तथा वह किसी व्यक्ति अथवा अन्य द्वारा कृत होता है। जिस प्रकार घट एक
कार्य है वह किसी व्यक्ति द्वारा उत्पन्न होता है तथा समयान्तराल पर वह नष्ट भी हो
जाता है पुनः वेद भी एक कार्य है और अनित्य है। वेद को पौरुषेय कहने का हेतु देते
हुए न्यायादि दर्शन कहते हैं कि वेद में काठक, कौथुम, पिप्पलाद, तैत्तिरीय इत्यादि
पुरुषों का नाम मिलता है। पाणिनि के ‘तेन प्रोक्तम्’ ‘कृते ग्रन्थे’ सूत्र से किसी
के द्वारा कथित अथवा कृत होने पर ही ऐसे नाम का प्रयोग होता है। इस प्रकार काठक,
कौथुम आदि के द्वारा वेदों की रचना होने से वेद पौरुषेय एवं अनित्य हैं। इसी
प्रकार वेद में अनित्य पुरुषों का नाम प्राप्त होने से भी उस पुरुष के जन्म के पश्चात्
ही वेदों की रचना हो सकती है अतः वेद अनित्य एवं पौरुषेय है- ‘बवरः
प्रावाहणिरकामयत कुरुविन्द औद्दालकिरकामयतः’। इसी प्रकार वेद में ‘वनस्पतयः
सत्रमासत, सर्पाः सत्रमासत जरद्गवो गायति मत्तकानि’ इत्यादि वाक्यों जैसे कि- ‘वनस्पतियाँ सत्र में उपस्थित थीं’ तथा ‘सर्प सत्र में उपस्थित थे’ इत्यादि प्रकारक उन्मत्त
अथवा बच्चों के समान वाक्य प्राप्त होने से भी वेद की अनित्यता एवं पौरुषेयत्व
सिद्ध होता है।
शब्द को नित्य मानने वाले मीमांसकों ने ‘अपौरुषेयं
वाक्यं वेदः’ परिभाषा से वेद को अपौरुषेय कहा है। पूर्वपक्ष के मत का निराकरण करते
हुए आचार्य कहते हैं कि वेद में काठक, कौथुम आदि के नाम आने का एकमात्र आशय यह है
कि उन्होंने वेद की अपने-अपने मतानुसार प्रवचन, प्रसारण अथवा व्याख्या की है। क्या
केवल प्रवचन करने मात्र से ही किसी ऋषि का वेद के साथ नाम सम्बद्ध हो जाता है?
नहीं, ऐसा नहीं है। जब किसी ऋषि ने किसी वेदभाग का अतिशयपूर्वक प्रवचन एवं प्रसारण
किया तो उस वेद के साथ ऋषि का नाम जुड़ जाना स्वाभाविक है। इस प्रकार वेद काठक,
कौथुम आदि ऋषियों की रचना नहीं अपितु ऋषियों ने उनका प्रवचनादि किया है। अतः वेद
अनादि एवं अपौरुषेय हैं यह सिद्ध है।
मीमांसकाचार्य पूर्वपक्ष के दूसरे मत का
खण्डन करते हुए कहते हैं कि वेद में बवर, प्रावाहणि आदि शब्दों का नाम प्राप्त
होने का आशय यह नहीं कि इस नाम के किसी व्यक्ति के जन्म के बाद वेद की रचना हुई।
वेद में बवर, प्रावाहणि इत्यादि प्रकार पारिभाषिक शब्दों का अनेकशः बार प्रयोग हुआ
है। कालान्तर में किसी व्यक्ति द्वारा उस नाम को धारण कर लेने से वेद का उससे कोई
सम्बन्ध हो यह आवश्यक नहीं। तथा पूर्वपक्ष के तीसरे मत को भी निरास करते हुए कहते
हैं कि वेदों में ‘वनस्पतयः सत्रमासतः’ ‘सर्पाः सत्रमासतः’ इत्यादि प्रकारक
वाक्यों में अचेतन वनस्पति एवं सर्प के सत्र में उपस्थित होने का आशय यह है कि
ब्राह्मणों द्वारा स्तुतिपरायण हो ऐसे वाक्यों का प्रयोग किया गया है जहाँ अचेतन
के साथ भी चेतनवत् व्यवहार किया गया है। इस प्रकार चार्वाकादि दर्शनों ने वेद की
अनित्यता एवं पौरुषेयता सिद्ध की है किन्तु उनके मतों का युक्तियुक्त खण्डन करते
हुए मीमांसकाचार्यों ने वेद को अनादि एवं अपौरुषेय सिद्ध किया है।
मीमांसकों
का मत है कि सृष्टि की उत्पत्ति नहीं होती अपितु यह तो अनादि है वेद ईश्वरकृत भी
नहीं हैं अपितु ये तो उनके द्वारा स्मरण किये गये हैं। स्मृति का विषय वहीं बन
सकता है जो पूर्व में विद्यमान हो तथा प्रयोक्ता से किसी प्रकार का सम्बन्ध हो।
वेद के सम्बन्ध में ऐसा नियम है कि सृष्टि के समान वेद भी अनादि हैं ये सृष्टि की
उत्पत्ति के बाद किसी मनुष्य अथवा ईश्वर द्वारा नहीं लिखे गये हैं। अर्थसंग्रह के
‘अपौरुषेयं वाक्यं वेदः’ परिभाषा की व्याख्या करते हुए रामेश्वर शिवयोगी वेद के
अपौरुषेयत्व को बताते हैं- ‘वेद इति लक्ष्यनिर्देशः तत्र
भारतादावतिव्याप्तिवारणायापौरुषेयमिति विशेषणम्। आत्मादौ तद्दोषवारणाय वाक्यमिति
विशेष्यम्। प्रमाणान्तरेणार्थमुपलभ्य विनिर्मितत्वं पौरुषेयत्वं
तद्भिन्नवाक्यत्वमिति फलितम्। ईश्वरो वेदमपि प्रमाणान्तरेणार्थमुपलभ्य विरचयति।
तस्मात्कथं वेदस्य पौरुषेयाद्भिन्नत्वम्? न हि वेदं परमेश्वरस्तदर्थं
प्रमाणान्तरेणोपलभ्य विरचयति। वेदाध्ययनं गुर्वध्ययनपूर्वकं
वेदाध्ययनस्याद्वर्तमानवेदाध्ययनवदित्यनुमानेन वेदस्यापौरुषेयत्वसाधनात्। ‘यः
कल्पः स कल्पपूर्वकः’ इति न्यायेन संसारस्यानादित्वात् परमेश्वरस्य च
सर्वज्ञत्वात्परमेश्वरो गतकल्पीय वेदमस्मिन्कल्पे
स्मृत्वोपदिशतीत्येतावन्मात्रेणोपपत्तौ वेदपौरुषेयत्वस्यानौचित्याच्चेति भावः।’
इस
प्रकार वेद के अपौरुषेय सिद्धान्त पर चार्वाक, जैन, बौद्ध एवं न्यायादि आचार्यों
के वेद के अनित्य एवं पौरुषेय मत का खण्डन करते हुए वेद की नित्यता एवं अपौरुषेयता
का प्रतिपादन किया गया। वेद के लक्षण में प्रयुक्त पदों को दोषत्रैविध्य से रहित
बताकर उनके प्रयोग की उपयुक्तता भी बतायी गयी है। वस्तुतः वेद ज्ञानस्वरूप हैं और
ज्ञान नित्य ही होता है। वैयाकरण भी वेद को नित्य एवं अपौरुषेय मानते हैं-
अनादिनिधना
नित्या वागुत्सृष्टा स्वयम्भुवा।
स्वयम्भूरेष
भगवान् वेदो गीतः स्वयम्भुवा॥
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