शङ्कराचार्य के अनुसार ब्रह्म परम तत्त्व है ब्रह्म ही
एकमात्र तत्त्व है इसीलिए शङ्कराचार्य के मत को अद्वैत नाम से प्रसिद्धि प्राप्त
हुई। ब्रह्म के स्वरूप का विवेचन शङ्कराचार्य कहते हैं कि- ‘इदं तु
पारमार्थिकं कूटस्थं नित्यं व्योमवत्सर्वव्यापिसर्वक्रियारहितं नित्यवृत्तं निरवयवं
स्वयंज्योतिस्स्वभावम्’[1] अर्थात् वह ब्रह्म पारमार्थिक, कूटस्थ, नित्य, सर्वव्यापी, क्रियाहीन, नित्य, निरवयव, स्वयंज्योतिस्वरूप
एवं आनन्दस्वरूप है। ब्रह्म शब्द बृहद् एवं महान् के अर्थ में ‘बृह् वृद्धौ’ धातु
से मनिन् प्रत्यय होकर निष्पन्न होता है- ‘बृंहति वर्धते निरतिशयमहत्त्वलक्षणं वृद्धिमान् भवति’[2]। आचार्यों ने ब्रह्म को परिभाषित करते हुए उनको विभिन्न
लक्षणों के माध्यम से प्रस्तुत किया। प्रथम स्वरूप लक्षण- ‘तत्र स्वरूपमेव लक्षणं
स्वरूपलक्षणम्’[3]
तथा दूसरा तटस्थ लक्षण- ‘तटस्थलक्षणं नाम यावल्लक्ष्यकालमनवस्थितत्वे सति
यद्व्यावर्तकमिति’[4]।
स्वरूप लक्षण में वस्तु अथवा तत्त्व के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान होता है और तटस्थ
लक्षण में वस्तु अथवा तत्त्व को सहायक अवयवों के द्वारा बताया जाता है। ब्रह्म के स्वरूप
लक्षण के रूप में ‘सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म’[5], ‘सर्वं
खल्विदं ब्रह्म’[6],
‘एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म’[7]
इत्यादि वाक्यों को प्रस्तुत किया जाता है। ब्रह्म के तटस्थ लक्षण के रूप में जगत्
के कर्ता, पालनकर्ता एवं संहर्ता स्वरूप को बताया जाता है।
ब्रह्म का तटस्थ उसके आगन्तुक गुणों को बताता है। शङ्कराचार्य
ने जगज्जन्मादिरूपकारणत्व को ही ब्रह्म का तटस्थ लक्षण स्वीकार किया है। ब्रह्मसूत्र
के ‘जन्माद्यस्य यतः’[8] सूत्र
को इस लक्षण का मुख्य स्रोत स्वीकार कर सकते हैं। जहाँ जन्मादि से सृष्टि की
उत्पत्ति, स्थिति एवं प्रलय को ग्रहण करते हैं। अद्वैत वेदान्त के अनुसार माया से
संवलित होकर ब्रह्म ही समस्त सृष्टि को उत्पन्न करता है। तमो प्रधान अज्ञान की विक्षेपशक्ति
से उपहित चैतन्य से सर्वप्रथम आकाश की उत्पत्ति होती है पुनः आकाश से वायु की,
वायु से अग्नि की, अग्नि से जल की और जल से पृथिवी की क्रमशः उत्पत्ति होती है। इस
प्रसंग में अनेक वाक्य प्राप्त होते हैं यथा- ‘तस्माद्वा एतस्मादात्मन आकाशः
सम्भूतः’[9] ‘यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते। येन जातानि जीवन्ति।
यत्प्रयन्त्यभिसंविशन्ति। तद्विजिज्ञासस्व। तद् ब्रह्मेति।’[10] ‘सदेव सोम्येदमग्र आसीत्’[11] ‘एतस्माज्जायते प्राणो मनः
सर्वेन्द्रियाणि च’[12] ‘अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः
सर्वं प्रवर्तते’[13]
‘बीजं मां सर्वभूतानाम्’[14] इत्यादि।
ब्रह्म अजर, अमर है। वह सत्, चित्, आनन्दस्वरूप
है। वह स्वयं ज्ञान है। उसका तीनों कालों में बाध नहीं किया जा सकता अतः वह कालातीत
है। इसी प्रकार के विभिन्न पारिभाषिक शब्दों के द्वारा ब्रह्म का स्वरूप विवेचन किया
जाता है। शङ्कराचार्य ने ब्रह्मसूत्र के भाष्य में कहा है- ‘अस्य जगतो
नामरूपाभ्यां व्याकृतस्यानेककर्तृभोक्तृसंयुक्तस्य प्रतिनियतदेशकालनिमित्तक्रियाफलाश्रयस्य
मनसाऽप्यचिन्त्यरचनारूपस्य जन्मस्थितिभङ्गं यतः सर्वज्ञात्सर्वशक्तेः कारणाद्भवति
तद्ब्रह्मेति’[15]।
सदानन्द यति द्वारा वेदान्तसार के मंगलाचरण में ब्रह्म के स्वरूप एवं तटस्थ दोनों
लक्षणों को बताया है-
अखण्डं सच्चिदानन्दमवाङ्मनसगोचरम्।
आत्मानमखिलाधारमाश्रयेऽभिष्टसिद्धये॥[16]
प्रस्तुत श्लोक में ‘अखण्डं’ ‘सच्चिदानन्दम्’
‘अवाङ्मनसगोचरम्’ पद ब्रह्म के स्वरूप लक्षण को बताता है तथा ‘अखिलमाधारम्’ पद
ब्रह्म के तटस्थ लक्षण को बताता है। यहाँ अखिल का आशय आकाशादि जगत् प्रपञ्च से है
तथा आधार का अर्थ आश्रय अथवा अधिष्ठान है। अखिलमाधारम् ब्रह्म का तटस्थ लक्षण है
इसकी सिद्धि हेतु यह जानना आवश्यक है कि ब्रह्म इस जगत् का आधार कैसे है? यह जगत्
कार्यरूप है क्योंकि यह उत्पन्न होता है पुनः किसी वस्तु की उत्पत्ति हेतु उपादान
एवं निमित्त कारण अनिवार्य हैं इनमें से एक की भी अनुपस्थिति पर कार्य सम्पादन
सम्भव नहीं। सृष्टि की उत्पत्ति के लिए उपादान एवं निमित्त कारण के रूप में ब्रह्म
ही गृहीत होता है। जिस प्रकार से मकड़ी जाल बनाने के प्रति शरीर की प्रधानता के
कारण उपादान एवं अपनी प्रधानता के कारण निमित्त कारण है ठीक वैसे ही ब्रह्म भी
अपनी उपाधिभूत अज्ञान की प्रधानता से उपादान कारण है तथा मायावच्छिन्न ब्रह्म ही
अपनी प्रधानता से निमित्त कारण है। इस प्रकार ब्रह्म ही जगत् की सृष्टि, स्थिति
एवं प्रलय का मुख्य हेतु है अतः यही ब्रह्म का तटस्थ लक्षण है।
इस प्रकार निष्कर्षतः कह सकते हैं कि ब्रह्म ही सत्, चित्,
आनन्दस्वरूप है ब्रह्म ही एकमात्र सत् तत्त्व है। ब्रह्म से अतिरिक्त सब मिथ्या
है- ‘ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या’। सृष्टि की उत्पत्ति, पालन एवं विनाश ही ब्रह्म का
तटस्थ लक्षण है। यह लक्षण ब्रह्म के स्वरूप लक्षण से अतिरिक्त लक्षण को बताता है जो
ब्रह्म में घटित भी होता है।
पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदुच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥[17]
[1] ब्रह्मसूत्र,
शाङ्करभाष्य, १.१.४
[2] शब्दकल्पद्रुम,
तृतीय भाग, पृ.४४२
[3] वेदान्त परिभाषा
[4] वेदान्त परिभाषा
[5] तैत्तिरीयोपनिषद्,
२.१.१
[6] छान्दोग्योपनिषद्,
३.१४.१
[7] वहीं, ६.२.१
[8] ब्रह्मसूत्र
१.१.२
[9] तैत्तिरीयोपनिषद्,
२.१.१
[10] वहीं
[11] छान्दोग्योपनिषद्,
६.२.१
[12] मुण्डकोपनिषद्,
२.१.३
[13] श्रीमद्भगवद्गीता,
१०.८
[14] वहीं, ७.१०
[15] ब्रह्मसूत्र,
१.१.२
[16] वेदान्तसार,
मंगलाचरण
[17] शत.ब्रा.
१४.७.४
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