“अयं पन्था अनुवित्तः पुराणो यतो देवा उदजायन्त
विश्वे''[1]
मानव सृष्टि में महान् है, श्रेष्ठ है। मानव रचना से श्रेष्ठतर रचना सृष्टि में अन्य कहीं प्राप्त
नहीं होती है, इस सृष्टि में मानव की प्रधानता उसके
मस्तिष्क की सर्वप्रधानता से है। प्रकृति के क्षेत्र में वैसे तो पशु-पक्षी आदि
सभी भाग लेतें हैं, पर मानव का भाग विशेष महत्त्व रखता
है। ऐतरेय उपनिषद् के आधार पर कहा जा सकता है कि प्रकृति के सभी दैवी अंग मानव में
ही अवतरित हुए हैं, अन्य योनियों में नहीं। यहीं कारण
है कि प्राणियों के लोक जीवन की विशिष्टताएँ तथा आध्यात्मिक क्षेत्र की उपलब्धियों
जिनसे मानव की पूर्णता का बोध होता है, संस्कृति के
अवयव हैं। जगत् का प्रत्येक मानव अपने जीवन काल में किसी न किसी रूप में अपनी
संस्कृति से जरुर जुड़ता है।
'संस्कृति' शब्द की निष्पत्ति संस्कृत के 'कृ' धातु (करना) से होती है। 'कृ' धातु से तीन शब्द बनते हैं 'प्रकृति' (मूल स्थिति), 'संस्कृति' (परिष्कृत स्थिति) और 'विकृति' (अवनति स्थिति)। संस्कृति शब्द का अर्थ
है संस्करण, परिमार्जन, शोधन, परिष्करण इत्यादि अर्थात् ऐसी क्रिया जो व्यक्ति में निर्मलता का संचार
करे। संक्षेप में किसी वस्तु को यहाँ तक संस्कारित और
परिष्कृत करना कि इसका अंतिम उत्पाद हमारी प्रशंसा और सम्मान प्राप्त कर सके। यह
ठीक उसी तरह है जैसे संस्कृत भाषा का शब्द 'संस्कृति'। दूसरी भाषा में यदि कहें तो संस्कृति उन भूषण रूपी सम्यक् चेष्टाओं का
नाम है जिनके द्वारा मानव समूह अपने आन्तरिक और बाह्य जीवन को, अपनी शारीरिक मानसिक शक्तियों को संस्कारवान्, विकसित
और दृढ़ बनाता है। वस्तुतः संस्कृति इतनी व्यापक और बृहद् चेष्टाओं का भण्डार है जो
सनातन काल से क्रमिक रूप में निखरती आई है और जिन्होंने मानव के सर्वांगीण विकास
में पूरा-पूरा योगदान भी दिया है। संस्कृति मानव समूह के उन आचार-विचारों की
प्रणाली का प्रतिनिधित्व करती है जो मनुष्य को सुसंस्कृत बनाकर उसे सभी प्रकार
योग्य समर्थ बनाती है।
व्यक्ति, परिवार, समाज एवं राष्ट्र के आत्मिक सद्गुणों का वह आलोक है जिससे सबका मंगलमय
विकासपथ प्रशस्त होता है, चेतना की उस प्रवृत्ति को
संस्कृति कहते हैं। वास्तव में भारत के विकास में वैदिक संस्कृति की मुख्य भूमिका
है। वैदिक चेतना के पूर्ण परिचय से अनभिज्ञयता ही भारतीय संस्कृति की अधोगति का
मूल कारण है। वैदिक संस्कृति से जुड़ी एक विचारधारा जिससे समस्त विश्व को एक परिवार
माना गया है-
"वसुधैव कुटुम्बकम्"[2]
वैदिक वाङ्मय में समस्त विश्व को पक्षी के एक घोसले के समान
कहा है जिसमें सभी द्वेष-भावादि से रहित होकर रहते हैं-
"यत्र विश्वं भवत्येकनीडम्"
संस्कृति
के विषय में प्रसिद्ध विद्वान् अपना विचार प्रकट करते हुए कहते हैं कि-
· मैथ्यू अर्नाल्ड- "विश्व के सर्वोत्कृष्ट कथनों और विचारों का ज्ञान भण्डार ही संस्कृति है।"
· श्री जवाहरलाल नेहरू- "संस्कृति शारीरिक, मानसिक शक्तियों के
प्रशिक्षण, दृढ़ीकरण या विकास परम्परा और उससे उत्पन्न
अवस्था है।"
· श्री राजगोपालाचार्य- "किसी भी जाति अथवा राष्ट्र के शिष्ट पुरुषों में विचार, वाणी एवं क्रिया का जो रूप व्याप्त रहता है, उसी
का नाम संस्कृति है।"
वैदिक संस्कृति से इस मानव समाज को जीवन जीने की शैली के
रूप में एक ऐसा तत्त्व मिला, जिससे
वह कर्म करते समय हमेशा उससे आवृत्त रहता है। पुरुषार्थ को प्राप्त करना मानव जीवन
की एक महत्त्वपूर्ण सफलता है। वह कर्म चाहे कैसा भी करे लेकिन वह किसी न किसी
पुरुषार्थ से घिरा ही रहता है। वैदिक संस्कृति एक ऐसी वस्तु है जिनकी विचारदृष्टि
एवं आचारनिष्ठा सर्वथा सार्वभौमिक तथा सार्वजनीन है।
मनुष्य का सर्वांगीण विकास पुरुषार्थ के माध्यम से होता है
पुरुषार्थ मनुष्य का वह आधार है जिसके अनुपालन से वह अपना जीवन व्यतीत करता है तथा
विभिन्न कर्त्तव्यों का मनोनिवेषपूर्वक पालन करता है। वह भौतिक पदार्थों, सन्तापों और सद्गुणों का भोग करने के
बाद जगत् की परिधि से बाहर आकर भक्ति का मार्ग अपनाता है और मुक्ति की ओर उन्मुख
होता है। अतः पुरुषार्थ से मनुष्य के व्यक्तित्व का विकास तो होता ही है साथ ही समाज का भी उत्कर्ष होता है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष मनुष्य के चार पुरुषार्थ माने गये हैं, जिन्हें शास्त्रकारों ने चतुर्वर्ग कहा। इन्हीं पुरुषार्थों के बल पर
व्यक्ति अपने समस्त कर्म सोत्साहपूर्वक करता है तथा जीवन, जगत् और परमात्मा के प्रति अपनी कर्मनिष्ठता ज्ञापित करता है।
धर्म, अर्थ, काम तीनों एक साथ जीवन में अनुसरित किये जाते हैं, धर्म प्रवण कार्यों से अर्थ और काम की प्राप्ति विशुद्ध और सात्त्विक होती
है। एक आदर्श समाज के लिए धर्म, अर्थ, काम का अनुसरण इसी आधार पर होना चाहिए, जिससे
व्यक्ति के कर्त्तव्य और अधिकार धर्म के विस्तृत परिवेश में परिवर्धित हो सकें। पुरुषार्थों
से ही मनुष्य बौद्धिक, नैतिक, शारीरिक, भौतिक और आध्यात्मिक उत्कर्ष करता है।
इसी तरह मनुष्य लौकिक जीवन के प्रति जागरुक होते हुए पारलौकिक जीवन के प्रति भी
उत्कंठित रहा है, वह अपने क्रियात्मक जीवन की
अभिव्यक्ति धर्मगत भावना और आचारगत नैतिकता से करता है। इस दृष्टि से पुरुषार्थ
लोक और परलोक दोनों के निमित्त किये जाने वाले कर्म में आस्था रखता है तथा दोनों
के सामंजस्य का हेतु बनता है।
वेदों में कर्म की प्रधानता सर्वत्र द्रष्टव्य है। कर्म के
बिना या स्वयं के परिश्रम अथवा उद्योग के बिना लोकाभ्युदय की दृष्टि से मनुष्य
नगण्य माना जाता है, इसलिए
आलसी मनुष्य दूसरों के द्वारा संचित वस्तु या सम्पत्ति का उपभोग करने में ही सुख
का अनुभव करते हैं और लोकमंगल के लिए जिनके जीवन का कुछ भी अंशदान नहीं होता है
उन्हें परमपापी कहा गया है।[3] सामाजिक
व्यवस्था को स्थायित्व प्रदान करने के लिए ऋषियों ने वर्ण-व्यवस्था स्वीकार की है, जिसका आधार कर्म ही है।[4] कर्म
के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र में विभाजित कर दिया गया है।
वेद में लोकहित साधक कर्म को धर्म शब्द से अभिहित किया गया
है इससे यह पता चलता है कि विश्वजीवन की प्रतिष्ठा का मूल धर्म ही है। पुरुषार्थ चतुष्टय
की सिद्धि का आधार भी धर्म को ही माना गया है। सुख का सर्वोत्तम साधन धर्म को ही
माना गया है।[5] सर्वोत्तम
सद्गुणों की पूर्णता और लोक-हित साधकता को दृष्टि में रखकर ही ऋषियों ने कहा है कि
धर्म समस्त संसार की प्रतिष्ठा है, संसार में धर्मशील
के पास समस्त प्रजाएँ आती हैं। धर्म में सबकुछ प्रतिष्ठित है इसलिए मनीषिजन धर्म
को सर्वश्रेष्ठ कहते हैं।[6]
साधारण शब्दों में धर्म के बहुत से अर्थ हैं - कर्त्तव्य, अहिंसा, न्याय, सदाचरण, सद्गुण आदि। वेदों में धर्म शब्द का
अभिप्राय प्रायः कर्त्तव्य से है, जहाँ हर व्यक्ति के
कर्तव्यों की बात की गयी है। भौतिक और आध्यात्मिक समृद्धि के मध्य का संतुलित
दृष्टिकोण ही पुरुषार्थ का सही स्वरूप है। इस मध्यम मार्ग पर चलकर ही मनुष्य अपने
जीवन का वास्तविक सुख और तद्गत उद्देश्यों को प्राप्त करता है तथा अन्ततोगत्वा परम
ब्रह्म की ओर उन्मुख होकर वह सर्वोच्च लक्ष्य मोक्ष की
ओर अग्रसर होता है।
धर्म के माध्यम से मनुष्य नैतिक सिद्धान्तों, विवेकशील प्रवृत्तियों और न्याय
प्रधान क्रियाओं को सही रूप में समझ सकने और उनका अनुगमन कर सकने में समर्थ होता
है सत्-असत् के भेद, भोगपरक अतिकाम और सुसंस्कृत
गार्हस्थ काम का अन्तर तथा अविवेक पूर्ण असत् अर्थ-संग्रह और सन्निष्ट
आवश्यकतानुसार ज्ञानोपार्जन के विभेद को मनुष्य धर्म के आधार पर ही कर सकता है।
महाभारत के अनुसार धर्म वही है जिससे किसी दूसरे को कष्ट न पहुंचे बल्कि लाभ हो।
जो धर्म का साथ अपने लिए ही अन्धानुसरण करता है वह
अन्धे के समान सूर्य के प्रभाव से अछूता रहता है[7] इसलिए
सत्कार्य और गुण सम्पन्नता धर्म के प्रभाव से ही संभव है।
वैदिक धर्म के अन्तर्गत यज्ञ की सर्वाधिक महत्ता थी जो
व्यक्ति को पावन, पवित्र
और कर्मठ बनाता है। विश्व की प्रक्रिया यज्ञ से संचालित होती है जिसमें निरन्तर
पाँच अग्नियां प्रज्ज्वलित हैं और आहुतियाँ डाली जा रही हैं। सर्वाधिक बड़ी अग्नि
द्युलोक है जिसमें श्रद्धा की आहूति पड़ रही है, इससे
चन्द्रालोक का उद्भव होता है जिसे पितृलोक भी कहते हैं। दूसरी अग्नि इन्द्र है
जिसमें चन्द्रमा आहूति है, इससे वर्षा होती है। तीसरी
अग्नि पृथिवी है जिसमें वर्षा आहूति बनती है, इससे अन्न
की उत्पत्ति होती है। मनुष्य चौथी अग्नि है जिसमें अन्न आहूति का काम करता है, इससे रेतस उत्पन्न होता है। पाँचवीं अग्नि पत्नी है जिसमें बीज आहूति रूप
में आधान होता है जिससे सन्तान उत्पन्न होती है। यही सृष्टि का क्रम है, जो पंचाग्नि विद्या के अन्तर्गत है। जगत् और जीवन दोनों यज्ञ हैं, जिसमें प्राण और भूत का अन्तर्मिलन है तथा दोनों एक दूसरे में अन्तर्भूत
होकर एक दूसरे को आत्मसात् करते हैं ऐसी स्थिति में समस्त संसार यज्ञमय है।
देवताओं को प्रसन्न करने के लिए यज्ञ एक प्रधान साधन है, यज्ञ सृष्टि का मूल था तथा देवता तक उससे शक्ति ग्रहण करते थे।[8]
वेदों में असत्यभाषी और नर-वधिक से घृणा करने का निर्देश
मिलता है, इसके अतिरिक्त कपटी, लोभी, अभिमानी, क्रोधी, क्रूर, देवनिन्दक, द्वेषी, कृपण, चोर आदि से भी घृणा करने का निर्देश
प्राप्त होता है।[9] निर्धन, भूखे और असहाय व्यक्तियों के प्रति दयालु और कृपालु वृत्ति के अनुगमन की
बात ऋषियों ने कही है।[10] ऋग्वेद से विदित होता है कि नीचे कर्म करने के कारण मनुष्य, वृक्ष और लता जैसे स्थावर शरीर में प्रवेश करता है।[11] स्वर्ग और नरक की कल्पना भी इस कर्म की गति के अनुसार ही की
गई, पुण्यकर्मा व्यक्ति को स्वर्ग की
प्राति होती थी तथा पापकर्मा व्यक्ति को नरक की।[12] नरक
एक अत्यन्त निम्न अन्धकूप के सदृश था।[13] व्यभिचारी, चरित्र, भ्रष्ट
और ऐन्द्रजालिक घृणा के पात्र थे तथा वे ‘नारकीय जीव’ कहे जाते थे।[14]
सभी देवता धर्म के द्वारा ही समस्त भुवनों की रक्षा करते
हैं और धर्म के द्वारा ही असुरों के घातक प्रहार से प्रजाजनों की रक्षा करते हैं-
“त्वं विश्वस्माद् भूवनात् पासि धर्मणाऽसुर्यात पासि धर्मणा"[15]
धर्म पुण्यकर्म है, सदाचार है। जो पुण्यवान् है, ईश्वर उसके साथ
है। संसार की कोई सत्ता ऐसी नहीं जो ईश्वर के भक्तों को चोट पहुँचा सके। धर्म जीव
को ईश्वर का प्यारा बना देता है, लोक में भी देखा जाता
है कि सत्कर्म करने वाले व्यक्ति सर्वत्र सम्मान के पात्र होते हैं। असुरों के
घातक इरादे धर्मात्मा के सामने वैसे ही भग्न हो जाते हैं जैसे पत्थर पर गिरा हुआ
मिट्टी का ढेला।
ते
सूनवः स्वपसः सुदंससो मही जर्मातरा पूर्वचिन्तये।
स्थातुश्च
सत्यं जगतश्च धर्मणि पुत्रस्य पाथः पदमद्वयाविनः॥[16]
इस जगत् में सबकुछ चलायमान है, पर एक अचल ईश्वर से आवास्य है। ईश्वर
ने सभी जीवों के लिए सब भोग दिये हैं, ये सब भोग, ऐश्वर्य वैभवादि उसी के हैं इसलिए लालचरहित होकर इनका उपभोग करना चाहिए-
ईशावास्यमिदं
सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्।
तेन
त्यक्तेन भुञ्जीथा मागृधः कस्य स्विद्धनम्॥[17]
वेद यह भी बतलाता है कि जो बाहर है वहीं अन्दर भी है इसलिए
व्यक्ति को कभी झूठ नहीं बोलना चाहिए और जो एक बार कह दे उसे करना चाहिए-
“यदन्तरं तद्वाह्यं यद् वाह्यं तदन्तरम्"[18]
देश के ऐश्वर्य की वृद्धि के लिए परिश्रम को सर्वथा करणीय
धर्म के रूप में स्वीकार किया गया है। जो श्रमपूर्वक अपने कर्म का सम्पादन नहीं
करता है उसके पास लक्ष्मी नहीं जाती है। श्रेष्ठ मनुष्य भी कर्म न करने से आलसी
बनकर बैठा हुआ श्रीहीन हो जाता है। परम ऐश्वर्यवान् परमात्मा चलने वाले पुरुषार्थी
के ही मित्र हैं, हे
रोहित! ऐसा मैंने सुना है कि बैठे हुए का ऐश्वर्य बैठ जाता है, उठकर खड़े हुए का खड़ा हो जाता है, जो पैरों को
फैलाकर पड़ा हुआ है, उसका ऐश्वर्य सो जाता है और
चलनेवाले पुरुषार्थी का ऐश्वर्य अनुगामी बना रहता है।[19]
अर्थ मनुष्य की सन्तुष्टि और विभिन्न वस्तुओं को प्राप्त
करने की उसकी उत्कण्ठा को व्यक्त करता है। हिन्दू विचारकों ने मनुष्य के जीवन में
ज्ञानार्जन करने की प्रवृत्ति को पुरुषार्थ के अन्तर्गत रखकर मानव मन की सहज
आकांक्षाओं और वृत्तियों का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया है। जीवन में भौतिक सुखों
की पूर्ति अर्थ के उपार्जन और संग्रह से ही संभव है। अतः त्रिवर्ग के अन्तर्गत ‘अर्थ’ मनुष्य
का दूसरा महत्त्वपूर्ण उद्देश्य है। सांसारिक और भौतिक सुख अर्थ पर ही निर्भर करता
है। किन्तु अर्थ की प्राप्ति के साथ-साथ उसका सम्यक् दान करना भी अपेक्षित माना
गया। अगर धन संग्रही ऐसा नहीं करता तो धर्म के समुचित उपयोग से वंचित रहता है तथा
वह सेवक की भाँति होता है।[20] धनवानों को चाहिए कि वे प्रार्थनाशील भिक्षुक को दान देकर तृप्त करें। ऐसा
करने में उन्हें ध्यान रखना चाहिए कि जीवन का पथ बहुत लम्बा है। पता नहीं कौन सा
कर्म कब फलीभूत हो उठे। धन तो रथ के चक्र की भाँति कभी ऊपर आता है और कभी नीचे चला
जाता है सम्पदा आज एक के पास है तो कल दूसरे के पास चली जायेगी-
पृणीयादिन्नाधमानाय
तव्यान् द्राधीयांसमनुपश्येत पनथाम्।
ओ
हि वर्तन्ते रथ्येव चक्राऽन्यमुपतिष्ठन्त रायः॥
यद्यपि संसार में सभी प्राणियों को अर्थ की आवश्यकता है परन्तु
मनुष्य की अर्थसम्बन्धी आवश्यकता अन्य प्राणियों की अपेक्षा विलक्षण ही है। मनुष्य
की अर्थसम्बन्धी आवश्यकताएँ चार भागों में विभाजित की जा सकती हैं- भोजन, वस्त्र, गृह
और गृहस्थी। संसार में जितने भी मनुष्य हैं चाहे वे जंगलों में रहने वाले भील
इत्यादि हों या शहरों में रहने वाले बड़े-बड़े शौकीन लोग या फिर त्यागी-सन्यासी हों
सबको इन उपर्युक्त चारों अर्थों की आवश्यकता होती ही है। अतः धन की आवश्यकता
प्रत्येक मनुष्य को होती है चाहे वह कम मात्रा में हो या फिर अधिक।
काम मानव जीवन की सुखद और सहज अनुभूति से सम्बद्ध है, जिसके माध्यम से वह अपनी कामजनित
प्रीति-रूप भावना और वृत्तियों की तुष्टि करता है। विवाह और सन्तानोत्पत्ति इसी
आधार पर संभव है। इस प्रकार काम व्यक्ति का तीसरा महत्त्वपूर्ण उद्देश्य है। यौन
भावना के साथ सौन्दर्यानुभूति की तुष्टि काम से ही होती है। द्रव्य अर्थ की
संवृद्धि से होने वाला आनन्द भी काम कहा गया है। मनुष्य के कामोपभोग की भावना को
एक निश्चित सीमा तक ही स्वीकार किया गया है काम और अर्थ से प्रभावित होकर मनुष्य
केवल इन्हीं दो का अनुसरण न करे, इसलिए उच्च आदर्शों और
नैतिक कर्त्तव्यों की नियोजना की गई। काम और अर्थ को साधन स्वीकार गया न कि साध्य।
जो व्यक्ति इसकी ओर लोभभरी दृष्टि से आकृष्ट नहीं होते वे ही ऐच्छिक और दैहिक सुख
का अन्तर पहचान पाते तथा धर्म सम्मत दिशा की ओर अग्रसर हो पाते हैं।
मानसशास्त्र के प्रसिद्ध ज्ञाता शार्ङ्गधर काम की परिभाषा
देते हुए लिखते हैं कि-
स्त्रीषु
जातो मनुष्याणां स्त्रीणां च पुरुषेषु वा।
परस्परकृतः
स्नेहः काम इत्यभिधीयते॥[21]
अर्थात् स्त्रियों में पुरुषों का और पुरुषों में स्त्रियों
का जो परस्पर स्वाभाविक स्नेह है, उसे
काम कहते हैं। मन से सम्बन्ध रखने वाले ठाट-बाट, शोभा-शृङ्गार
और स्त्री-पुत्रादि को काम के अन्तर्गत कर दिया गया है क्योंकि ये सभी पदार्थ केवल
मनस्तुष्टि के लिए हैं। यदि अपना मन नियंत्रण में हो तो इनमें से किसी भी पदार्थ
की आवश्यकता नहीं है। किन्तु इन सबसे मन का हटा लेना बहुत ही कठिन है। ठाट-बाट और शोभा-शृङ्गारादि से चाहे मनुष्य मन हटा भी ले, परन्तु स्त्री से पुरुष को और पुरुष से स्त्री को मन हटाना बड़ा ही कठिन
है। सच पूछो तो स्त्री-पुरुष के स्वाभाविक बन्धन को ही काम कहते हैं।
मोक्ष का सम्बन्ध आत्मा और परमात्मा से तथा मनुष्य के
आध्यात्मिक जीवन से है। जीवन का चरम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति है। किन्तु मोक्ष की
प्राप्ति उतनी सरल अथवा आसान नहीं। इसके लिए मन और मस्तिष्क की शुद्धि और पवित्रता
अनिवार्य मानी गयी है। प्रवृत्ति से निवृत्ति की ओर तथा लौकिक से पारलौकिक की ओर
चलने का निर्देश दिया गया। मनुष्य अपनी विभिन्न प्रवृत्ति के अनुसार सांसारिक जीवन
में प्रवृत्त रहता है जब वह अपने सत्कर्मों तथा सद्व्यवहारों से त्याग का मार्ग अपनाता
है तब वह निवृत्त हो जाता है जगत् से उसकी यह निवृत्ति ही उसे आध्यात्मिकता और
भक्ति की ओर प्रेरित करती है और जब वह पूर्णरूपेण प्रवृत्ति और निवृत्ति में
समन्वय स्थापित कर लेता है तब वह समस्त बन्धनों से मुक्त होकर मोक्ष की ओर अग्रसर
होता है उसका यह संयम, नियम, ज्ञान और विवेक आदि उसे अध्यात्मपरक बनाते हैं। वह पूर्णरूपेण चारों
पुरुषार्थों के अन्तर, महत्त्व और गरिमा को समझने लगता
है। पुरुषार्थ सम्बन्धी उसका यह ज्ञान और विवेक उसके व्यक्तित्व का सर्वांगीण
निर्माण करता है तथा समाज को जीवन्त बनाने में सहायक होता है इस दृष्टि से
पुरुषार्थ मानव जीवन के समग्र स्वरूप का उन्नयन करता है तथा उसे नियमित और संयमित
मार्ग का दिग्दर्शन कराता है।
निष्कर्षतः कह सकते हैं कि वैदिक वाङ्मय की सांस्कृतिक
चेतना जितनी आधिभौतिक है उतनी ही आध्यात्मिक भी है। अर्थ और काम की आसक्ति
मानव-चेतना के व्यावहारिक विकास-पथ को प्रशस्त बनाती है। इन दोनों की आधारशक्ति तप
और श्रम की अटूट निष्ठा होती है। वेदों के सांसारिक वैभव के संवर्धन के लिए
परिश्रम को जितना महत्त्व दिया दिया गया है उतना ही आत्मसंयम से काम की
स्वेच्छाचारिता के निरोध को भी महत्त्व प्राप्त है। धर्म, अर्थ, काम
और मोक्ष से समन्वित पुरुषार्थ व्यक्ति के जीवन को गरिमामण्डित बनाता है और उसके
निवृत्तिमूलक व्यक्तित्व का निर्माण करता है। फलतः व्यक्ति धर्म का अनुसरण करते
हुए सांसारिक सुख और उपभोग को अनुपालित करता है तथा भक्ति का अनुगमन करके मोक्ष की
ओर अग्रसर होता है। स्पष्ट है कि हिन्दू जीवन दर्शन के चार स्तम्भ हैं- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष, जिसमें धार्मिक (नैतिक) भौतिक (सांसारिक) तथा
आध्यात्मिक (ईश्वरीय) तत्त्वों का निवेशन है।
धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये चार पुरुषार्थ जीवन के आधार स्तम्भ हैं जिनके आधार पर
मनुष्य के व्यक्तित्व का निर्माण होता है। जहाँ आत्मा के लिए मोक्ष की, बुद्धि के लिए धर्म की, मन के लिए काम की और
शरीर के लिए अर्थ की आवश्यकता होती है। वैदिक संस्कृति की कुछ ऐसी विचारधाराएँ
जिनका अनुगमन करके भारत अपने उन्नत स्तर को प्राप्त करता है-
हम लोगों को अपना कर्म करते हुए सौ वर्ष तक जीने की इच्छा
रखनी चाहिए, कर्त्तव्य, कर्म की साधना करने वालों में कर्म लिप्त नहीं होते-
कुर्वन्नेवेह
कर्माणि जिजीविशेच्छतं समाः।
एवं
त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे॥[22]
हम लोगों को साथ-साथ चलना चाहिए, प्रेमपूर्वक संवाद करना चाहिए, आपस में मानसिक-भावना को समान करके ज्ञान प्राप्त करना चाहिए-
संगच्छध्वं
संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्।
देवा
भाग यथा पूर्वे संजानाना उपासते॥[23]
हम लोगों के मन्त्र (कार्यसूत्र का सिद्धान्त ) एक जैसे हो।
उस मन्त्र के अनुरूप हमलोगों की समिति (संगठन), हमारे चित्त, हमारी मानसिक दशा और कार्यप्रणाली
भी समान हो। हमलोग समेकित रूप से लक्ष्य प्राप्ति हेतु परमात्मा से एक समान
प्रार्थना करें-
समानो
मन्त्रः समितिः समानी समानं मनः सह चित्तमेषाम्।
समानं
मन्त्रमभि मन्त्रये वः समानेन वो हविषा जुहोमि॥[24]
इसी क्रम में हमारे ऋषियों ने आगे कहा कि-
समानी
वः अकूतीः समाना हृदयानि वः।
समानमस्तु
वो मनो यथा वः सुसहासति॥[25]
गतिहीनता मौत का नाम हैए निराशा से हाथ-पर-हाथ रखकर बैठना
हार को बुलावा देना है। कहावत है कि- गतिशील पत्थर पर काई नहीं लगती। वेदों में एक
बड़ी ही सुन्दर उक्ति मिलती है- चरैवेति चरैवेति। इसमें कहा गया है कि- जो व्यक्ति
चलता रहता है उसकी जांघों में फूल फूलते हैं, उसकी आत्मा में फल लगते हैं। बैठे हुए आदमी का सौभाग्य पड़ा रहता है और
उठकर चलने वाले का सौभाग्य चल पड़ता है इसलिए चलते रहो, चलते
रहो।
सर्वे
भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया।
सर्वे
भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग् भवेत्॥
सन्दर्भ
ग्रन्थ सूची-
- संस्कृतं संस्कृतिः संस्कारश्च, कुमार, शशिप्रभा, विद्यानिधि प्रकाशन, दिल्ली, २००९
- भारतीय संस्कृति के आधार स्रोत, गौड़, डॉ० रामशरण, स्वराज प्रकाशन, दिल्ली, १९९८.
- वेदों एवं पुराणों में आर्य एवं जनजातीय संस्कृति, कुजूर, डॉ० स्कॉलस्टिका, ईस्टर्न बुक लिंकर्स, दिल्ली, २००९.
- धर्म दर्शन, सिन्हा, डॉ० लक्ष्मी, ईस्टर्न बुक लिंकर्स, दिल्ली, १९९८.
- वैदिक वाङ्मय का इतिहास, पं० भगवद्दत्त, गोविन्दराम हासानन्द, दिल्ली, २०१२.
- भारतीय संस्कृति और हिन्दी-प्रदेश, रामविलास शर्मा, किताबघर प्रकाशन, नई दिल्ली, १९९९.
- भारत की संस्कृति-साधना, उपाध्याय, डॉ० रामजी, रामनारायाण लाल प्रकाशन, इलाहाबाद, वि. श. २०१६.
- सत्यार्थप्रकाशः, सरस्वती, दयानन्द , आर्य साहित्य प्रचार ट्रस्ट, दिल्ली.
- स्मृतिकालीन भारतीय समाज एवं संस्कृति,दूबे, डॉ० राजदेव, प्रतिभा प्रकाशन, १९८८.
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[1] ऋक् ४‐ १८‐१
[2] यजु०
३२‐८
[3] मोघमन्नं
विन्दते अप्रचेताः सत्यं ब्रवीमि वध इत् स तस्य।
नार्यमाणं पुण्यति नो सखायं केवलाघो भवति
केवलादी॥ ऋक् १०‐११७‐६
[4] एतावद्
वै इदं सर्वं यावद् ब्रह्म क्षत्रं विट् शूद्रः। मानव्यो हि एताः सर्वा प्रजाः॥
शत० १४‐४‐२‐२७
[5] विद्या
ददाति विनयं विनयाद्याति पात्रता। पात्रत्वात् धनमाप्नोति धनात् धर्मं ततः सुखम्॥
[6] धर्मो
विश्वस्य जगतः प्रतिष्ठा, लोके धर्मिष्ठं प्रजाः
उपसर्पन्ति। धर्मेण पापम् अपनुदति, धर्मे सर्वं
प्रतिष्ठितम्।
तस्माद् धर्मं परमम् वदन्ति। तै०आ० १०‐६‐३
[7] महा०
वन० ३३‐२१-३
[8] पंचविंश
ब्रा० १‐८‐४‐१
[9] ऋक् १‐१५‐६, १‐९‐२, १‐९४‐९, १‐११५‐६
[10] ऋक्
१‐२‐६, ८‐६‐५
[11] ऋक्
७‐९‐३, ७‐१०‐१६, ७‐१०‐२
[12] ऋक्
१‐२५‐६, १०‐१३२‐४, ९‐७३‐८
[13] ऋक्
२‐२‐१०
[14] ऋक्
४‐५‐५
[15] ऋक्
१‐१३४‐५
[16] ऋक्
१‐१५९‐३
[17] यजु०
४०‐१
[18] अथर्ववेद
[19] न
अनाश्रान्ताय श्रीः अस्तीति रोहित! शुश्रुम्। पापो नृषद् वरो जनः, इन्द्रः इत् चरतः सखा॥
[20] महा०
वन० ३३.२४
[21] सार्ङ्गधरसंहिता
१‐६
[22] यजु०
४०‐२
[23] ऋक्
१‐१९१ ‐२
[24] ऋक्
१‐१९१ ‐३
[25] ऋक् १‐१९१ ‐४
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बहुत ज्ञानवर्धक लेख।
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हटाएंबहुत सुन्दर ,,,, ज्ञान वर्धक लेख ....
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हटाएंभारतीय संस्कृति आध्यात्मिकता तथा पुरुषार्थ चतुष्टय किस प्रकार विश्व के तथा राष्ट्र की समृद्धि में योगदान दे सकते हैं इसका बखूबी उल्लेख किया है
जवाब देंहटाएंधन्यवाद नितिन...💐💐
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